इस सूत्मर के माध्यम से महर्षि चित्त के विषय में सूक्ष्मता से बता रहे हैं कि किस प्रकार साधना के क्षणों में अलग अलग प्रकार के संस्कार के उदय और अस्त होने से चित्त की स्थिति और उसका परिणाम बदलता रहता है | यह सूत्र चित्त को समझने में सहायता करता है | जैसा कि आपको पता है साधनपाद में चित्त को 5 प्रकार की भूमि वाला कहा गया है |
१. क्षिप्त
2. मूढ़
3. विक्षिप्त
4. एकाग्र
5. निरुद्ध
और साथ में यह भी बताया गया है कि योग केवल एकाग्र और निरुद्ध अवस्था में ही संभव हो सकता है अतः इन्हीं दो भूमियों की प्राप्ति में प्रयत्नशील रहना चाहिए | अतः एकाग्र भूमि प्राप्त होने पर जब साधक योग साधना करता है तो इस जन्म के अभ्यास, संस्कार अथवा पूर्व जन्म के संस्कारों के कारण चित्त बीच बीच में डोलता रहता है, कभी योग साधना की दृष्टि से अच्छे संस्कार जिन्हें हम निरोध संस्कार कह देते हैं और कभी कभी बुरे संस्कार जिन्हें योग की भाषा में व्युत्थान संस्कार के नाम से कह देते हैं, दोनों प्रकार के संस्कार आते जाते रहते हैं |
ये अच्छे और बुरे संस्कार ( व्युत्थान और निरोध ) भी अपेक्षा से छोड़ने योग्य होते हैं | जो संस्कार में सम्प्रज्ञात समाधि में निरोध होते हैं वही संस्कार असम्प्रज्ञात समाधि में व्युत्थान अर्थात छोड़ने योग्य हो जाते हैं | अतः योग साधना में पहले कुछ संस्कारों को प्राप्त कर सम्प्रज्ञात समाधि लगाई जाती है और फिर उससे ऊँची स्थिति प्राप्त करने के लिए ज्ञान, वैराग्य का सहारा लेकर असम्प्रज्ञात समाधि की प्राप्ति होती रहती हैं |
अतः चित्त का निरोध और व्युत्थान संस्कारों में बदलते रहना यही चित्त का परिणाम है |
सूत्र: व्युत्थाननिरोधसंस्कारयोरभिभवप्रादुर्भावौ निरोधक्षणचित्तान्वयो निरोधपरिणामः
संस्कारों में वृत्ति रूप उफान जब आता है
उभरा रूप संस्कारों का यह व्युत्थान कहलाता है
इसके विपरीत निरोध संस्कार दबे चित्त में रहते हैं
ना कुछ हरकत हैं करते, बस चित पड़े रहते हैं
कभी व्युत्थान कभी निरोध भाव में
चित्त डोलता है इन दो नाव में