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नाभिचक्रे कायव्यूहज्ञानम् ॥ ३.२९॥
पिछले कुछ सूत्रों में संयम शब्द महर्षि पतंजलि नहीं लिख रहे हैं, क्योंकि उसकी अनुवृत्ति चल रही है | इसलिए जहाँ जहाँ विभूति का वर्णन हो लेकिन संयमात् शब्द का अध्याहार स्वयमेव समझ लेना चाहिए |
नाभिचक्र में संयम करने से अपने शरीर की आंतरिक एवं बाह्य संरचना का ज्ञान हो जाता है | आप सभी नाभि जानते ही हैं, जब योगी नाभि चक्र तक धीरे धीरे प्राणयाम पूर्वक श्वास भरकर लेकर जाता है और कुछ देर वहां ठहकर धारणा-ध्यान और समाधि का एकसाथ अभ्यास करता है और फिर धीरे धीरे श्वास को वहीँ से बाहर छोड़ता है तो संयम दृढ हो जाता है और योगी को अपने शरीर की संरचना का आभास होने लग जाता है |
अगले अभ्यास में श्वास को नाभि प्रदेश आस-पास में स्थित करके बंद आँखों से पूरी सहजता के साथ जब संयम को नाभि प्रदेश पर ही केंद्रित कर देते तो यह संयम दृढ होकर योगी को अपने शरीर के बाहरी एवं आंतरिक आकार को दिखाने लग जाता है | यह दिखना एक गहरे अनुभव जैसा होता है |
महर्षि पतंजलि विभूतिपाद में जिन भी शक्तिओं की बात यहाँ बता रहें हैं इन विभूतिओं का अर्जन केवल साधना मार्ग पर आगे बढ़ने के लिए होना चाहिए| क्योंकि जब मान-सम्मान-शक्ति-पद आदि उपाधियाँ आती व्यक्ति अपने शाश्वत लक्ष्य को भूलकर उन्हीं विभूतिओं में संलग्न होकर अटक जाता है, इसलिए सभी विभूतिओं में साधना के साथ आगे बढ़ने का भाव योगी को निहित रखना चाहिए | इसी भाव को महर्षि इसी पाद के ३७ वें सूत्र में व्यक्त करेंगे अतः विस्तार से चर्चा आगे उसी सूत्र करेंगे |