जीवन जीने की दो दृष्टि

यदि आप जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में एकाग्रता चाहते हैं या चाहते हैं कि आप विभिन्न प्रकार के कार्य करते हुए भी प्रत्येक कार्य में विशिष्ट एकाग्रता बनाये रखने में सफल हों और परिणाम स्वरूप आपके भीतर की सहजता और सरलता, प्रसन्नता बनी रहे तो उसके लिए जीवन के कुछ मूलभूत सिद्धान्तों का परिपालन अत्यंत आवश्यक है।

1. आप जीवन के जिस भी मोड़ पर हों, गुरु, माता, पिता या अधिकारी के आश्रय में हों, आपके सम्मुख आने वाले कार्यों को, निर्देशों एवं आज्ञा का आप खुले मन से संपादन करें। ऐसा न हो कि मन से आप उन्हें करना नहीं चाहते हों और फिर भी करते जा रहे हों। इस प्रकार का जीवन जीने से न तो आपके भीतर कुशलता आएगी और न ही मन की चंचलता मिटेगी। बुद्धि की अस्थिरता और यथार्त निर्णय की स्थिति भी नहीं बनेगी। दूसरी ओर आपका जीवन शिकायतों से भरा हुआ मिलेगा। ऐसे अव्यवस्थित मन और अस्थिर बुद्धि से कोई भी व्यक्ति बड़ा कार्य नहीं कर सकता है।

बड़ा कार्य से आशय है सार्थक कार्य जिसे करने से जीवन में आत्म संतुष्टि का भाव रहता है।

2. यदि जीवन में स्थायी खुशी और कर्म का अजस्र प्रवाह जो कि आपकी सहजता को खंडित होने नहीं दे, ऐसा जीवन चाहते हैं तो आप जब कभी भी, जो कार्य करते हों उसी को सर्वोच्च प्राथमिकता दें। इस प्रकार की प्रवृत्ति मन को किसी एक कार्य में बांधे रखती है और आपकी विचार की धारा और क्रिया की धारा एक साथ बहती है जिससे कार्य तो सुंदर से सुंदरतम होता ही जाता है इसके साथ साथ जीवन से मानवनिर्मित या तनाव रूपी दुष्ट दानव का सिर भी कुचल दिया जाता है।

यदि ये जीवन साधना के इन दो पक्षों के ऊपर जागरूकता से कार्य किया जाए तो अल्प काल में ही कोई भी व्यक्ति अपने सर्वश्रेष्ठ स्वरूप को प्राप्त कर लेगा और शांति के वन में निर्भय घूमेगा।

सात्विकता से भरी इंद्रियां आपको विषय मार्ग पर न ले जाकर भगवत्प्राप्ति के मार्ग पर ले जाएंगी और आपका जीवन सार्थक हो जाएगा। - स्वामी विदेह देव

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