योग साधना पद्धति के साथ जीवन पद्धति भी है और जीवन सभी के लिए हैं तो योग भी सभी के लिए है | कुछ लोग ऐसा सोचते हैं की योग तो सन्यासियों, यतियों, तपस्वियों के लिए है, जो गृहस्थ धर्म में हैं उनके लिए योग की विधाएं नहीं हैं | ऐसा मानना बिल्कुल भी उचित नही है क्योंकि में सबकुछ समावेशित है |
हम अपने जीवन पर यदि दृष्टि डालते हैं तो पता चलता है कि शरीर के साथ मन, बुद्धि, इन्द्रिय, ह्रदय और आत्मा हमारे पास है, उसके बाद माता-पिता सहित भाई-बहन आदि घनिष्ठ सम्बन्ध हमारे पास हैं | यहाँ से यात्रा प्रारंभ होकर फिर विद्यालय में गुरुजनों, मित्रों, अन्य सामाजिक व्यक्तियों के संपर्क होते हुए आगे बढती है | घर, परिवार, समाज के वातावरण के साथ, माता-पिता और गुरुजनों एवं समाज के विभिन्न अंगों से ज्ञान प्राप्त करते हुए हम जीवन में आगे बढ़ते हैं |
जीवन के अब तक के क्रम में विचार, भाव, संवेदनाएं, पुरुषार्थ अपना स्वरुप तय करने लग जाता है और मानव के रूप में हमारी प्रवृति और निवृति भी तय होने लग जाती है |
अब यदि इस जीवन क्रम में कोई अध्यात्म की और बढ़ जाता है और कोई संसार के बीच गृहस्थी हो जाता है तो भी उपरोक्त जीवन जीने के अभिन्न अंग नहीं छूटते हैं | शरीर, मन, बुद्धि, इन्द्रिय, ह्रदय, आत्मा, स्वास्थ्य, व्यवहार, संसार यह सबकुछ प्रत्येक स्थिति में समान रहता है | जीवन के प्रत्येक क्षण को समाधान में जीना यह भी एक मनुष्य होने के नाते हमारे लिए कर्त्तव्य होता है और इसी कर्त्तव्य भावना को पूरा करने के लिए योग का अस्त्वित्व बीच में आता है | क्योंकि योग