कैसे रुक जाता है जीवन का सहज प्रवाह!!
आज वर्तमान में मनुष्य के जीवन की सबसे बड़ी कोई समस्या है तो वह है जीवन का सहज प्रवाहित न होना। यह बहुत बड़ा शब्द है लेकिन इसका असर जीवन के न जाने किन छोटे छोटे अवसरों पर हो रहा है। जब अतीत में जीवन सहज रूप से प्रवाहित हुआ करता था तो न जाने आयामों से होकर गुजरता था जिसकी झलक भर भी पाना आज सम्भव नहीं हो पा रहा है।
जैसे ही तुम आज कुछ करने जाते हो , 10 प्रकार के व्यवधान आ जाते हैं जो तुमने खुद सोचे हुए हैं, जो तुम्हारे ही मस्तिष्क की उपज हैं। जब वो आ जाते हैं तब तुम कुछ देर सोचते हो, तौल भाव करते हो, उनसे बचने का भी झूठा दिखावा करते हो और फिर थक हार कर अपने को उन व्यवधानों में से किसी एक व्यवधान को खूंटी बनाकर स्वयमेव टंग जाते हो। बस यहां खेल खत्म हो जाता है, जीवन प्रवाह अवरुद्ध हो जाता है।
यदि बहता रहता जीवन तो न जाने क्या क्या अनुभव तुम्हारी झोली में होते, न जाने कितने नए नज़ारे तुम्हारी आँखों में होते, न जाने कितने नए नए आयामों के बीच जीवन हिलोरें ले रहा होता। तुम्हारा जीवन कहीं पीछे न छूट जाता बल्कि परमात्मा ने जो जीवन का प्रवाह शुद्ध रूप से तुम्हारे लिए तैयार किया था उसके साथ साथ तुम भी आनंदपूर्ण होकर बह रहे होते। ये व्यवधान झटके हैं तुम्हारे जीवन प्रवाह के। इन्हें जितनी जल्दी तुम समझ जाओ और जितनी जल्दी इनसे पीछे छुटा पाओ वही आज के समय में श्रेयकर है। किसी भी प्रकार की दुर्गति के लिए तुम्हारे द्वारा निर्मित ये व्यवधान ही जिम्मेदार हैं और तुम हो सबसे आखिरी जिम्मेदार। बेहोशी में तुम इन व्यवधानों का सतत अभ्यास करते चले गए हो और अब ये तुम्हारे ही जीवन के अंग बन चुके हैं। तुमने इन्हें दुश्मन मानना भी बंद कर दिया है क्योंकि अब तुम इनके वश में हो। ये तुम्हें चलाते हैं, तुमसे व्यर्थ की दौड़ भाग कराते हैं। इसलिए यदि इनकी असलियत तुम सच में जानना चाहते हो तो कुछ न करते समय इनके विषय में चिंतन करो क्योंकि जब भी तुम घोर कर्म में प्रवृत्त होते हो तो ये सर्वाधिक सक्रिय होते हैं और तुम इनके वश में होते हो। तुम्हारी बुद्धि पर इनका ही राज होता है।
जब तुम कुछ न कर रहे होते हो तब इनकी पोल पट्टी तुम परत दर परत खोल सकते हो। कुछ न करने की स्थिति केवल ध्यान में ही संभव है। जब तुम इनपर पूरा ध्यान दे सकते हो। जब तुम इन व्यवधानों को पूर्ण रूप से देख लोगे तब तुम्हें समझ में आएगा कि तुम कैसे इनकी गिरफ्त में फंसे हो। एक बार तुम्हें तुम्हारी कैदी अवस्था का भली भांति ज्ञान हो जाये तब तुम बाहर निकलने के रास्तों के बारे में चिंतन मंथन कर सकते हो। यह मामला जीवन का है इसलिए मामूली नहीं है यह मामला।
क्या हैं ये व्यवधान? कैसे निर्मित कर लेते हो तुम इन्हें? कैसे होंगे ये दूर?
बड़े शब्दों में कहूँ तो सारी अशुद्धियां व्यवधान हैं जो जीवन के प्रवाह को रोक रही हैं। काम चलाने के लिए जितना जरूरी है उतना ही ये जीवन प्रवाह को बहाती हैं अन्यथा बाधाएं खड़ा करके स्वयं को मजबूत करती जाती हैं। क्योंकि यदि जीवन बहेगा ही नहीं तो इन व्यवधानों के अस्तित्व पर खतरा आ जाता है। एक तरह से तुम और तुम्हारे द्वारा निर्मित ये व्यवधान दोनों एक ही जीवन के सहारे जी रहे हैं। उसपर भी ये तुम्हारे सिर पर खड़े हैं। सोचकर देखो क्या हाल हुआ पड़ा है जीवन का।
व्यवधान तो वस्तुतः एक ही है लेकिन इसके अनेक रूप हैं। कभी तो यह अकर्मण्यता के रूप में जीवन मे प्रवाह को रोक लेता है तो कभी भय के रूप में।
कभी तुम्हें तुम्हारी प्रकृति से उलट काम कराते हुए जीवन के प्रवाह को विपरीत ले जाएगा तो कभी लोभ लालच के जाल में फंसाकर जीवन का प्रवाह रोक देगा।
ऐसा मैं नहीं कह रहा हूँ कि ये जो कुछ व्यवधान तुमसे निर्मित हो गए हैं ये होने ही नहीं चाहिए थे। यदि कोई मनुष्य इन्हें निर्मित करने से ही रोक सके तो वह तो परमात्मा सदृश कार्य हो जाएगा जो किसी मुक्त पुरुष के द्वारा ही संभव है। लेकिन सभी मनुष्य मात्र के लिये ये व्यवधान निर्मित होंगे। लेकिन तुम्हें चाहिए कि तुम इन व्यवधानों को समझकर इन्हें अपनी समझ से दूर भी करो। एक बार यदि तुम इन्हें अपने जीवन से हटाने में सफल हो गए तो फिर जीवन का जो नया आयाम तुम्हें मिलेगा वो अद्भुत होगा, अद्भुत उसकी छटा होगी। इसलिए जरूरी है कि तुम इन व्यवधानों के पार झांकने के लिए पुरुषार्थ करो।
यदि जाना है पार इन सब व्यवधानों के तो तुम्हें सबसे पहले सारे द्वन्दों के पार जाना सीखना होगा। वस्तुतः द्वन्दों के पार जाना ही व्यवधानों के पार जाने जैसा है। यही है साधन और यही बन जाता साध्य भी।
छोटे छोटे द्वन्दों के पार जाने की कला सीखनी होगी, जब छोटे छोटे द्वंद्व तुम झेलने में सक्षम हो जाओगे तब तुम्हारी यात्रा बड़े द्वन्दों की ओर होगी।
एक बात सदैव स्मरण रखना जिस सीढ़ी से नीचे उतरते उतरते तुम्हारा पतन हुआ है वही सीढ़ी उत्थान की ओर भी ले जाती है।
तुम्हें वही मार्ग अपनाना है ऊपर चढ़ने के लिए। कोई नई सीढ़ी का आविष्कार नहीं करना है। सीधी और सरल सी बात है यह इसे अपने मस्तिष्क में अच्छी प्रकार से तुम्हें बिठा लेना है।
छोटे छोटे संकल्पों से जीवन का निर्माण होगा, शुद्ध जीवन का निर्माण। जब छोटे छोटे संकल्प पूरे होने लगेंगे तो मन भी धीरे धीरे उपलब्धि के भावों से भरने लगेगा। व्यवधान के लिए मन में जगह धीरे धीरे कम होने लगेगी। मन हो या जीवन हो यहां शून्य कभी शेष नहीं रहता। यदि तुम मन या जीवन को अच्छाई से नहीं भरोगे तो ये बुराई से काम चला लेंगे। यहां निर्वात स्वयं से नहीं बनता, निर्वात के लिए भी तुम्हें परम पुरुषार्थ करना पड़ेगा।
कुल मिलाकर तुम जो चाहते हो होना वैसा ही पुरुषार्थ तुम्हें करना पड़ेगा। आज भी जो कुछ तुम हो वह तुम हुए हो अपनी मर्जी से। भले ही तुम्हें पता हो या न हो। गहराई से सोचोगे तो तुम्हें पता चलेगा कि हर बार तुमने बलपूर्वक अपने आप को इस स्थिति हेतु तैयार किया है। तुम एक नहीं हो तुम विखंडित व्यक्तित्व हो। न जाने तुम्हारे कौन से अस्क ने तुमसे काम करवाया है। तुम हर बार पछताए भी हो, बार बार कसमें खाई हैं तुमने। कहीं कहीं तो तुम्हें पता भी नहीं है कि तुमने कुछ गलत किया है तो प्रायश्चित भी नहीं कर पाए हो तुम।
जहां जब तुमने प्रायश्चित किया है मन से वही तुम्हारे मन पर अंकित है कि तुम्हें सुधरना है।
इतना अव्यवस्थित जीवन जीकर आये हो कि भूल गए हो कि कब क्या करना है, कब क्या सोचना है, कब क्या समझना है, कब क्या होना है! कोई भी इस प्रकार का निर्वाह जी रहा मनुष्य इस बीहड़ जंगल में अपने को खोया हुआ पायेगा।
इसलिये तुम्हें चेताया जा रहा है कि जगो, अपने को बल पूर्वक समझाओ कि बहुत कुछ गलत हो चुका है। समझने के बाद चिंता, अवसाद, ग्लानि में न जाओ बल्कि सोचो कि अब क्या रास्ता बचा है। रास्ता तो सदैव बचा हुआ है, मार्ग तो खुला ही हुआ है तुम्हारे कदम बढ़ने बांकी हैं। तुम कदम बढ़ाओगे तो फिर खींचे जा सकते हैं, तुम्हें हौसला रखना होगा, तुम्हें धैर्य की पालना करनी होगी। तुम्हें खुद से ही लड़ना है। दुनिया की सारी लड़ाई आसानी से जीती जा सकती है लेकिन जो लड़ाई स्वयं से हो वह बहुत कठिन होती है। तुम ही शत्रु पक्ष हो तुम ही स्वपक्ष हो। यह आसन लड़ाई नहीं होगी। यहां कदम कदम पर शह और मात का खेल चलेगा। यहां पल भर जीत की रोशनी से तुम जगमगाओगे तो पल भर में हार का अंधकार तुम्हारी सांसों में कम्पन पैदा कर देगा। लेकिन तुम सबकुछ समझते हुए फिर लड़ना, फिर जीतना। यदि हो मध्य में हार कभी कभी तो जीत का संस्कार फिर फिर जगाना।
यह लड़ाई सचमुच में लड़ने जैसी है। एकमात्र लड़ाई है जो लड़ी जाने योग्य है। यहां बुराई की हार और अच्छाई की जीत सुनिश्चित करनी है।
सबकुछ समझकर तुम्हें तीसरा पक्ष होना है। अच्छाई और बुराई इन दो पक्षों के युद्ध में तुम्हें कृष्ण की तरह अच्छाई का सारथी बनना है। तभी यह भीतर के महाभारत का युद्ध अच्छाई के पक्ष में जाकर जीत का जयघोष करेगा।