मैत्र्यादिषु बलानि ॥ ३.२३॥
महर्षि पतंजलि ने योग दर्शन के 33वें सूत्र में चित्त की प्रसन्नता के लिए जिन चार उपायों की (मैत्री , करुणा, मुदिता एवं उपेक्षा) की चर्चा की है उन पर जब योगी पृथक पृथक संयम करता है, तो उसे क्रमशः मैत्री,करुणा,मुदिता एवं उपेक्षा रूपी बलों की प्राप्ति होती है|
मैत्री में धारणा-ध्यान और समाधि का एक साथ प्रयोग करके अच्छी संगति वाले व्यक्तियों के साथ मित्रता होती है जो एक साधक के जीवन का सबसे बड़ा बल माना जाता है | अच्छी संगति और सत्संग के बिना विवेक जागृत नहीं होता है इसलिए योग मार्ग पर स्वाध्याय का बहुत महत्व है | समाज में प्रतिष्ठित एवं सात्विक आत्माओं के साथ संपर्क बनता है जिसके कारण से योगी सहजता एवं सरलता के साथ अपने योग मार्ग पर आगे बढ़ता जाता है |
इसी प्रकार करुणा के ऊपर संयम करने से योगी सभी प्राणियों के प्रति अहेतुकी करुणा से भर जाता है और करुणा रूपी बल से योगी का हृदय निश्चल बनकर उसे स्वरूप सिद्धि में सहायता मिलती है |
इसी प्रकार मुदिता में संयम करने से भीतर की प्रसन्नता रूपी बल भी प्राप्त होता है | जो भी अपने से वरिष्ठ जन माता-पिता गुरु एवं अन्य सम्मानित व्यक्ति होते हैं उनके साथ रहकर प्रसन्नता अनुभव होती और जीवन में आगे बढ़ने के लिए सभी बड़ों का आशीर्वाद एवं उनके स्नेह की आवश्यकता होती है | इसे ही मुदिता रूपी बल कहा गया है |