प्रस्तुत सूत्र में महर्षि पतंजलि यह कह रहे हैं कि पुरुष और बुद्धि वस्तुतः यह दोनों भिन्न-भिन्न तत्व हैं, लेकिन जो व्यक्ति पुरुष को और बुद्धि को एक मान करके व्यवहार करता है तो उसका यह व्यवहार शास्त्रीय दृष्टि से भोग कहलाता है | और जब साधक अपने योग की यात्रा में आगे बढ़ता हुआ पृथक पृथक रूप से तत्वों के ऊपर चिंतन करता है तो यह स्वार्थ कहलाता है| स्वार्थ में संयम करने से, बार-बार अभ्यास करने से योगी को जो सैद्धांतिक रूप से पता था उसकी आनुभूतिक रूप से सिद्धि हो जाती है | जैसे साधक को सैद्धांतिक रूप से पता है कि पुरुष और बुद्धि दोनों पृथक पृथक तत्त्व हैं लेकिन आनुभूतिक स्तर पर योगी को सम्पूर्णतया पुरुष का ज्ञान हो जाता है | केवल पुरुष का ही ज्ञान नहीं होता अपितु बुद्धि के विषय में भी स्पष्ट हो जाता है |
पुरुष कौन है? शुद्ध चेतन स्वरूप है और बुद्धि से जो कि एक जड़ पदार्थ है और त्रिगुणों से जिसकी उत्पत्ति हुई है, इस प्रकार अलग-अलग जान लेता है और अज्ञान से मुक्त हो जाता है, विद्या से युक्त हो जाता है | क्योंकि जो जैसा है उसे वैसा जानना ही विद्या कहलाती है और जो जैसा नहीं है उसे वैसा समझना ही अविद्या है | इस प्रकार उसके जीवन में फिर कोई संशय नहीं रह जाता और योगी को तत्त्वज्ञान हो जाता है |