Chapter 3 : Vibhooti Pada
|| 3.35 ||

सत्त्वपुरुषयोरत्यन्तासंकीर्णयोः प्रत्ययाविशेषो भोगः परार्थत्वात्स्वार्थसंयमात्पुरुषज्ञानम् 


पदच्छेद: सत्त्व-पुरुषयो:, अत्यंत-असंकीर्णयो:, प्रत्यय-अविशेषो, भोगः, परार्थत्वात् , संयमात् , पुरुषज्ञानम् ॥


शब्दार्थ / Word Meaning

Hindi

  • सत्त्व- बुद्धि और
  • पुरुषयो:- पुरुष दोनों में
  • अत्यंत- बहुत ज्यादा
  • असंकीर्णयो:- भेद या भिन्नता है
  • प्रत्यय - इन दोनों तत्त्वों को
  • अविशेष: - पृथक-पृथक न मानना या ऐसा नहीं जानना ही
  • भोग: - (वास्तविक) भोग है, इसमें कारण है-
  • परार्थत्वात् - बुद्धि का परार्थ होने से
  • स्वार्थ - भोग बुद्धि से अलग पुरुष के विषय में
  • संयमात्- संयम करने से
  • पुरुषज्ञानम्- पुरुष अर्थात आत्मा का ज्ञान हो जाता है

English

  • sattva - purity aspect of chitta
  • purusha - purusha
  • atyanta - extremely
  • sankeernnayoh - different
  • pratyaya - concept
  • vishesho - indistinct
  • bhogah - experience
  • pararthatvat - for the interest
  • svartha - self interest
  • sanyamat - samyama
  • purusha - pure awareness
  • jnanam - knowledge.

सूत्रार्थ / Sutra Meaning

Hindi: बुद्धि और पुरुष दोनों स्वरुप से ही एक दुसरे से पुर्णतः भिन्न या अलग- अलग हैं । इन दोनों को अभिन्न अर्थात एक ही मानना ‘भोग’ कहलाता है । इसमें बुद्धि का विपरीत ज्ञान कारण है । इससे भिन्न जो स्वार्थ अर्थात केवल पुरुष के विषय में ही संयम करने से आत्मा का ज्ञान होता है ।

Sanskrit:

English: Worldly experience arises from a conception which does not distinguish between the two extremely different entities (Buddisattva and Parusa). Such experience exists for another (i.e. Parusa). By samyama on this knowledge of the Parusa is acquired.

French:

German: Wenn die Besinnung mit einem äußeren Ziel verbunden ist, kann der Wesensunterschied zwischen dem Citta ( dem meinenden Selbst ) und dem Purusa ( dem inneren Selbst ) nicht wahrgenommen werden, und dies führt zur Verkettung. Erst wenn die Besinnung auf das innere Ziel ausgerichtet ist, entsteht die Erkenntnis des Purusa.


Audio

Yog Sutra 3.35

Explanation/Sutr Vyakhya

  • Hindi
  • English
  • Sanskrit
  • French
  • German
  • Yog Kavya

प्रस्तुत सूत्र में महर्षि पतंजलि यह कह रहे हैं कि पुरुष और बुद्धि वस्तुतः यह दोनों भिन्न-भिन्न तत्व हैं, लेकिन जो व्यक्ति पुरुष को और बुद्धि को एक मान  करके व्यवहार करता है तो उसका यह व्यवहार शास्त्रीय दृष्टि से भोग कहलाता है |  और जब साधक अपने योग की यात्रा में आगे बढ़ता हुआ पृथक पृथक रूप से तत्वों के ऊपर चिंतन करता है तो यह स्वार्थ कहलाता है| स्वार्थ में संयम करने से, बार-बार अभ्यास करने से योगी को जो सैद्धांतिक रूप से पता था  उसकी आनुभूतिक रूप से सिद्धि हो जाती है | जैसे साधक को सैद्धांतिक रूप से पता है कि पुरुष और बुद्धि दोनों पृथक पृथक तत्त्व हैं लेकिन आनुभूतिक स्तर पर योगी को सम्पूर्णतया पुरुष का ज्ञान हो जाता है | केवल पुरुष का ही ज्ञान नहीं होता अपितु बुद्धि के विषय में भी स्पष्ट हो जाता है |

पुरुष कौन है? शुद्ध चेतन स्वरूप है और बुद्धि से जो कि  एक जड़ पदार्थ है और त्रिगुणों से जिसकी उत्पत्ति हुई है,  इस प्रकार अलग-अलग जान लेता है और अज्ञान से मुक्त हो जाता है, विद्या से युक्त हो जाता है | क्योंकि जो जैसा है उसे वैसा जानना ही विद्या कहलाती है और जो जैसा नहीं है उसे वैसा समझना ही अविद्या है |  इस प्रकार उसके जीवन में फिर कोई संशय नहीं रह जाता और योगी को तत्त्वज्ञान हो जाता है |

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