Chapter 3 : Vibhooti Pada
|| 3.3 ||

तदेवार्थमात्रनिर्भासं स्वरूपशून्यमिव समाधिः


पदच्छेद: तत्, एव, अर्थ-मात्र-निर्भासम् ,स्वरुप-शून्यम् , इव, समाधि: ॥


शब्दार्थ / Word Meaning

Hindi

  • तदेव-तब वह ध्यान ही
  • अर्थमात्र-केवल उस वस्तु के अर्थ या स्वरूप का
  • निर्भासं-आभास मात्र करवाने वाला
  • स्वरूपशून्यम् -अपने स्वरूप से शून्य हुआ
  • इव -जैसा
  • समाधिः -समाधि होती है ।

English

  • tad - that
  • eva - as it were
  • artha - object
  • matra - only
  • nirbhasam - shining;
  • sva - own
  • roopa - form
  • hoonyam - empty, devoid, is absent
  • iva - like, as it were
  • samadhih - oneness, integration.

सूत्रार्थ / Sutra Meaning

Hindi: जब योगी स्वयं के स्वरूप को भूलकर केवल ध्येय (जिसका ध्यान कर रहा है) में ही लीन हो जाता है, तब योगस्थ साधक की वह अवस्था-विशेष समाधि कहलाती है ।

Sanskrit: 

English: Samadhih is when the object of meditation only shines forth, as though devoid of it own form.

French: 

German: Genau dann, wenn nur noch das Motiv leuchtet und das Citta ( das meinende Selbst) verschwunden zu sein scheint, ist Samādhi ( die vollkommene Erkenntnis) eingetreten.

Audio

Yog Sutra 3.3

Explanation/Sutr Vyakhya

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  • Yog Kavya

धारणा और ध्यान के बाद महर्षि पतंजलि अब योग के तीन अन्तरंग साधन में से तीसरे अन्तरंग साधन समाधि के विषय में बता रहे हैं | जब साधक यम, नियम आदि सभी 5 बाह्य अंगों के समुचित पुरुषार्थ से धारणा का अभ्यास करता हुआ ध्यान में प्रतिष्ठित होता है तब ध्यान की निरंतरता से जिस विषय पर ध्यान कर रहा होता है, उसी के स्वरुप में लीन हो जाता है तो इस स्थिति को ही समाधि कहते हैं | समाधि लगने पर साधक या ध्याता अपने स्वरुप को भूल सा जाता है या यूँ कहें वह भूल जाता है कि वह ध्यान कर रहा था या वह किसका ध्यान कर रहा था, उसे बस ध्येय (जिसपर ध्यान लगाया जा जाता है ) के स्वरुप का भी ज्ञान होता रहता है |

उदहारण के लिए : यदि कोई साधक, शास्त्रों में वर्णित परम पिता परमेश्वर के स्वरुप पर धारणा करता हुआ धीरे धीरे ध्यानस्थ हो जाता है तो जितनी देर तक ध्यान प्रगाढ़ होता है उतनी देर साधक समाधि में रहता है और उसे केवल परम पिता परमेश्वर के स्वरुप का ही भान होता रहता है | इस भाव स्थिति में साधक स्वयं के अस्तित्व से भी अनभिज्ञ रहता हुआ केवल ईश्वर के आनंद में डूबा रहता है, जितनी देर तक ध्यान अविछिन्न रूप से बना रहता है, समाधि भी लगी रहती है | इसलिए आपने “ध्यान टूट जाता है”, “समाधि टूट जाती है” इस प्रकार के शब्दों का प्रयोग सुना होगा |

महर्षि व्यास ने योग को समाधि कहा है और समाधि को खोलते हुए उसे समाधान का नाम दिया है | वस्तुतः योग समाधान के रूप में ही हमारे समक्ष आता है | आज के इस भौतिक जगत में यदि समाधान रूप कोई विकल्प है तो वह केवल योग ही है | एकमात्र योग के आश्रय में रहकर हम अपने सम्पूर्ण जीवन को सब दिशाओं से उठा सकते हैं | चाहे स्वस्थ जीवन की बात हो या एक आदर्श जीवनचर्या के जीने की बात हो, यह सबकुछ योग में स्थित रहकर संभव किया जा सकता है | जब हमारे जीवन में सब प्रकार से समाधान होता है तभी हम सुखी हो सकते हैं और आनंद को प्राप्त कर सकते हैं क्योंकि जिसके पास समाधान नही होता है वही दुखी और दरिद्र अपने को महसूस करता है |

यदि मनुष्य सब कर्मों को करता हुआ योग के इन तीन अन्तरंग अंगो ” धारणा-ध्यान-समाधि” को अपने जीवन में नहीं सम्मिलित करता है तो सब प्रकार का असंतुलन जीवन में प्रवेश कर जाता है| सब प्रकार के बाह्य पुरुषार्थ करते हुए यदि हम आन्तरिक पुरुषार्थ नही करेंगे तो यही असंतुलन का कारण बन जाता है | इसलिए जीवन में संतुलन के लिए बाह्य एवं आन्तरिक पुरुषार्थ दोनों आवश्यक हैं |

coming soon..
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सूत्र: तदेवार्थमात्रनिर्भासं स्वरूपशून्यमिव समाधिः

 

धारणा और ध्यान की निरंतरता में

योग साधना की इस समरसता में

योगी स्वयं को भूल जाता है

अर्थ मात्र से ज्ञान को पाता है।

स्थिति यह तो अनिर्वचनीय है

हम सब साधकों द्वारा प्रार्थनीय है

स्वस्थ चित्त और व्याधि मिटाता

योगी समाधि की स्थिति को पाता

4 thoughts on “3.3”

  1. Baldev singh says:

    I found this as One of the most convincing and clear translation of this sutra..

  2. Anil says:

    Please give some more detailed articles and explanation audio recording.

  3. dhanya says:

    please give the details in english

    1. admin says:

      sure, soon will be updated

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