पूर्व सूत्र में महर्षि ने जिन धारणा-ध्यान और समाधि को यम-नियम-आसन-प्राणायाम और प्रत्याहार की दृष्टि से अन्तरंग साधन कहा था वे निर्बीज समाधि अर्थात असम्प्रज्ञात समाधि की दृष्टि से बहिरंग साधन हो जाते हैं और निर्बीज समाधि (असम्प्रज्ञात समाधि) के लिए पर वैराग्य स्वरुप साधन अन्तरंग साधन हो जाता है |
सम्प्रज्ञात समाधि की सिद्धि आलंबन वाले साधन चाहे बहिरंग के रूप में यम-नियम आदि 5 साधन हों या धारणा-ध्यान समाधि रूप अन्तरंग साधन हों, के रूप में होती है तो वहीँ असम्प्रज्ञात समाधि के लिए बिना किसी आलंबन वाले साधन की आवश्यकता होती है | इसलिए योगी एक ऐसे साधन की ओर आगे बढ़ता है जिसे पाने के लिए किसी अन्य आलंबन की आवश्यता न हो और जिसके अभ्यास से फिर असम्प्रज्ञात समाधि खंडित न हो |
पर वैराग्य का भाव एक बार जग जाने के बाद फिर खंडित नहीं होता है जिसके कारण असम्प्रज्ञात समाधि भी खंडित नहीं होती हैं अपितु योगी के भीतर ऐसा सामर्थ्य उत्पन्न हो जाता है जहाँ वह स्वेच्छा से भावपूर्वक ही असम्प्रज्ञात समाधि में पुनः स्थापित हो जाता है |
पर वैराग्य वह भाव चेतना है जहाँ पर सब प्रकार की वृत्तियों का निरोध हो जाता है और योगी परमात्म तत्व के अतिरिक्त किसी अन्य विषय की और उन्मुख ही नहीं होना चाहता है| लेकिन क्रमबद्ध होकर जब योग के आठो अंगों का समुचित अभ्यास और उसका फल योगी पा लेता है तभी यह पर वैराग्य की भाव चेतना योगी के भीतर जन्म लेती है और सब प्रकार से योगी को शांत प्रशांत कर परम पिता परमेश्वर के आनंद से भर देती है |
सूत्र: तदपि बहिरङ्गं निर्बीजस्य
निर्बीज समाधि सर्वोच्च समाधि
मिटती जहां हर व्याधि उपाधि
धारणा, ध्यान और समाधि
निर्बीज समाधि के बहिरंग साथी