महर्षि पतंजलि अब अगली विभूति के बारे में बात करते हुए कहते हैं कि मन की सत्वगुणी अवस्था होती है, जहाँ मन प्रकाशशील स्थिति में आकर एकाग्र हो जाता है, तो इस प्रकार की सत्वगुणी प्रवृत्ति में संयम करने से योगी को सूक्ष्म से सूक्ष्म पदार्थ भी या वस्तु भी दिखाई देने लग जाती है|
और ऐसे पदार्थ भी जो किसी आवरण के अंदर होने के कारण दिखाई नहीं दे सकते वे भी योगी को दृष्टिगोचर होने लग जाते हैं , और इसके साथ ही जो वस्तु या व्यक्ति या पदार्थ बहुत दूरी पर होते हैं जिन्हें आसानी से आँखों से देखा नहीं जा सकता है या किसी दूर देश में स्थित होते हैं, ऐसे सभी पदार्थ का व्यक्तियों का ज्ञान योगी को हो जाता है |
मन की जो प्रवृत्ति है या मन की जो सत्त्वगुणी अवस्था है उसके विषय में समाधि पाद के 36वें सूत्र में महर्षि पतंजलि ने कहा है ” विशोका वा ज्योतिष्मती ।। 36 ।।” जहां पर मन सत्वगुण के प्रकाश से आप्लावित होकर मन को एकाग्र कर देता है और फिर उसी मन की एकाग्र प्रवृत्ति पर जब योगी धारणा-ध्यान और समाधि का एक साथ प्रयोग करता है तब उसके भीतर एक दिव्य दृष्टि का प्रादुर्भाव हो जाता है,जिसके माध्यम से सूक्ष्म से सूक्ष्म वस्तु और किसी भी प्रकार के आवरण से ढकी हुई वस्तु या कितने ही दूर देश में स्थित वस्तु हो उसका ठीक ठीक ज्ञान योगी को सरलता से हो जाता है |