Chapter 3 : Vibhooti Pada
|| 3.25 ||

प्रवृत्त्यालोकन्यासात्सूक्ष्मव्यवहितविप्रकृष्टज्ञानम् 


पदच्छेद: प्रवृति-आलोक-न्यासात्-सूक्ष्म-व्यवहित-विप्रकृष्ट-ज्ञानम् , ॥


शब्दार्थ / Word Meaning

Hindi

  • प्रवृति-मन की ज्योतिष्मती प्रवृत्ति के
  • आलोक-प्रकाश में
  • न्यासात् –अच्छे प्रकार संयम करने से
  • सूक्ष्म-अत्यंत छोटा या
  • व्यवहित -जो वस्तु किसी से ढंकी हो या छुपी हो
  • विप्रकृष्ट - जो वस्तु कहीं दूर देश में स्थित हो
  • ज्ञानम्-उन सूक्ष्म, ढंकी और दूरस्थ सभी वस्तुओं का ज्ञान हो जाता है

English

  • pravritti - the inner light
  • aloka - light
  • nyasat - by applying
  • sookshma - the subtle
  • vyavahita - hidden
  • viprakrishta - distant
  • jnana - knowledge.

सूत्रार्थ / Sutra Meaning 

Hindi: जब योगी द्वारा मन की प्रकाशमय प्रवृत्ति में संयम किया जाता है । तब उसे जो वस्तु या पदार्थ दिखाई नहीं देते, जो किसी आवरण या पर्दे के अन्दर हैं या किसी दूर देश में स्थित हैं । उन सभी वस्तुओं या पदार्थों का उसे भली- भाँति ज्ञान हो जाता है ।

Sanskrit:

English: By making samyama on that effulgent light ones obtains knowledge of what is subtle, hidden or far distant.

French: 

German: Hingabe an die Quelle des ewigen Lichts führt zu Wissen über Subtiles, Verborgenes und Fernes.

Audio

Yog Sutra 3.25

Explanation/Sutr Vyakhya

  • Hindi
  • English
  • Sanskrit
  • French
  • German
  • Yog Kavya

महर्षि पतंजलि  अब अगली विभूति के बारे में बात करते हुए कहते हैं कि मन की सत्वगुणी अवस्था होती है, जहाँ मन प्रकाशशील स्थिति में आकर एकाग्र हो जाता है, तो इस प्रकार की सत्वगुणी प्रवृत्ति में संयम करने से योगी को सूक्ष्म से सूक्ष्म पदार्थ भी या वस्तु भी दिखाई देने लग जाती है|

और ऐसे पदार्थ भी जो किसी आवरण के अंदर होने के कारण दिखाई नहीं दे सकते वे भी योगी को दृष्टिगोचर होने लग जाते हैं , और इसके साथ ही जो वस्तु या व्यक्ति या पदार्थ बहुत दूरी पर होते हैं जिन्हें आसानी से आँखों से देखा नहीं जा सकता है या किसी दूर देश में स्थित होते हैं, ऐसे सभी पदार्थ का व्यक्तियों का ज्ञान योगी को हो जाता है |

मन की जो प्रवृत्ति है या मन की जो सत्त्वगुणी  अवस्था है उसके विषय में समाधि पाद के 36वें सूत्र में महर्षि पतंजलि ने कहा है  ” विशोका वा ज्योतिष्मती ।। 36 ।।”  जहां पर मन  सत्वगुण के प्रकाश से आप्लावित होकर मन को एकाग्र कर देता है और फिर उसी मन की एकाग्र प्रवृत्ति पर जब योगी धारणा-ध्यान और समाधि का एक साथ प्रयोग करता है तब उसके भीतर एक दिव्य दृष्टि का प्रादुर्भाव हो जाता है,जिसके माध्यम से सूक्ष्म से सूक्ष्म वस्तु और किसी भी प्रकार के आवरण से ढकी हुई वस्तु या कितने ही दूर देश में स्थित वस्तु हो उसका ठीक ठीक ज्ञान योगी को सरलता से हो जाता है |

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