प्रातिभाद्वा सर्वम् ॥ ३.३३॥
महर्षि पतंजलि विभूतिपाद में अनेक शक्तिओं की बात करते आ रहे हैं और जब साधक इन शरीस्थ या शरीर के बाहर संयम का अभ्यास लम्बे समय तक करता है तो इतने लम्बे अभ्यास और अनुभव के बाद योगी के भीतर एक विशेष प्रकार की बुद्धि, ज्ञान या प्रज्ञा उत्पन्न होती है जिसे प्रातिभ ज्ञान कहा गया है सूत्र में और इस प्रज्ञा के उत्पन्न होने पर योगी को सभी पदार्थों या सिद्धिओं का मोटा मोटा ज्ञान स्वतः ही होने लग जाता है |
जैसे योगी किसी ऐसे विषय का अध्ययन करता हो जिसे उसने कभी पहले नहीं पढ़ा हो फिर भी वह विषय सम्मुख आते ही उसके बारे में भी योगी बहुत कुछ जान लेता है और पुरे साधना के क्रम में यह प्रातिभ ज्ञान होता रहता है | कहा जाता है की पूर्ण विवेक ज्ञान होने से पहले योगी को यह प्रातिभ ज्ञान होता है | प्रातिभ ज्ञान का ही परिपक्व रूप विवेक ज्ञान कहा जा सकता है |