पूर्व के सूत्रों में महर्षि पतंजलि ने बताया कि किस प्रकार योगी जब इंद्रियों के ऊपर एवं उसकी अवस्थाओं के ऊपर धारणा, ध्यान और समाधि रूप सम्यक संयम को साधता है तो उसे इंद्रियों के ऊपर वशता प्राप्त हो जाती है। अब प्रस्तुत सूत्र में महर्षि कह रहे हैं कि, जब ऐसा हो जाता है तो योगी को मनोजवित्वम्, विकरण भाव और प्रधानजय ये तीन प्रकार की सिद्धियां मिलने लग जाती हैं । तो आइए समझते हैं कि मनोजवित्व क्या है? विकर्ण भाव क्या है? और प्रधानजय क्या है? मनोजवित्व है- योगी का शरीर मन की गति वाला हो जाता है। जैसे शिव संकल्प मंत्र बोलते समय मन के सामर्थ्य के बारे में कहते हैंग में यज्जागर्तो दूरमुदैत् दैवम । मन इतना शक्तिशाली है कि पल में बहुत दूर चला जाता है तो पल में ही वापस भी आ जाता है। उसकी गति बहुत तेज है तो इस प्रकार की गति वाला शरीर हो जाता है जिसका अर्थ यह नहीं है कि शरीर एक पल में दिल्ली तो अगले पल हरिद्वार में चले जायेगा । जिसका अर्थ है कि योगी के शरीर में विशेष प्रकार की स्फूर्ति आ जाती है। जैसे सामान्य लोग चलते हैं वैसा फिर योगी नही चलता। उसकी चाल में, उसके मुड़ने में एक स्फूर्ति होती है। उसका शरीर फिर सामान्य व्यक्तियों की तरह गति न करते हुए विशेष स्फूर्ति और गति से युक्त हो जाता है, जिसकी उपमा यहां पर मन की गति और स्फूर्ति के साथ की जा रही है। इसे ही महर्षि मनोजावित्व सिद्धि कह रहे हैं। विकरण भाव वह है जिसमें इंद्रियां शरीर के बिना ही बाहर जाकर अपने विषयों के साथ संपर्क साध लेती हैं और अपना काम कर लेती हैं। तो यह विकरणभाव नमक सिद्धि है और जब यह सिद्ध होता है तो परकाया प्रवेश नाम को सिद्धि जिसे हमने पूर्व के सूत्रों में पढ़ा है वह भी सिद्ध होने लगती है।
तीसरी शक्ति है जो योगी को प्राप्त होती है, वह है प्रधानजय। अर्थात यह पूरी जो प्रकृति है उसके द्वारा बने हुए जो पदार्थ हैं उन सब पर उसे अधिकार प्राप्त प्राप्त हो जाता है। वह चाहे तो किसी पदार्थ का जैसे भी उपयोग करना चाहे वैसे कर सकता है उसकी उत्पत्ति और विनाश में भी योगी समर्थ हो जाता है। तो इस प्रकार से इंद्रियों के ऊपर जब संयम आ जाता है तो मनोजावित्व, विकरण भाव और प्रधानजय ये सिद्धियां योगी के वश में हो जाती हैं।