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हृदये चित्तसंवित् ॥ ३.३४॥
ह्रदय में संयम करने से योगी को चित्त का ठीक ठीक स्वरुप पता चल जाता है | ह्रदय शरीर का एक ऐसा अंग है जो लगातार गतिशील रहता है और चित्त भी एक ऐसा उपकरण है जिसमें अधिकतर विचारों का उठना गिरना लगा रहता है |
योगी जब चित्त के आधार स्वरुप ह्रदय को अपने संयम का विषय बना लेता है तब चित्त का स्वरुप है वह धीरे धीरे खुलने लग जाता है |
जैसे चित्त में विचार तरंगे कैसे उठती हैं? चित्त में भाव कैसे उठते हैं? चित्त प्रशांत कैसे होता है ? चित्त में प्रवृति कैसे बनती है ? ऐसे अनेक पहलूँ हैं चित्त जिसका अनुभव योगी को हो जाता है और वह उसके आधार पर अपनी साधना को आगे बढ़ाता है क्योंकि करने और उसके प्रतिक्रया करने के ढंग को समझने लग जाता है |