जब साधक को संयम सिद्धि से विशेष बुद्धि मिल जाती है तो उस बुद्धि का प्रयोग कर उसके ही आश्रय में आगे बढ़ना चाहिए, क्योंकि वह विशेष बुद्धि मिली ही इसीलिए है कि उसका सहारा लेकर साधक अपने आगे की योग की अवस्थाओं में आगे बढ़ सके | यह एक प्रकार का साधक को प्रभु का प्रसाद है |
योग में शनै: शनै: प्रवेश के लिए कहा जाता है क्योंकि क्रमबद्ध बढ़ने से और धीरे धीरे अनुभव करते हुए बढ़ने से योग का मार्ग सुगम से सुगमतर होता चले जाता है लेकिन यदि जल्दीबाजी की और शॉर्टकट लेने का भाव बना रहा तो साधना भी खंडित होती है और योग का सारा पुरुषार्थ भी व्यर्थ चले जाता है | इसलिए संयम सिद्धि से जो बुद्धि में प्रकाश होता है उसी का सहारा लेकिन धीरे धीरे आगे बढ़ने के लिए महर्षि ने इस सूत्र के माध्यम से निर्देशित किया है |
जैसे ही यह विशेष प्रज्ञा साधक को मिलती है , वही विशेष प्रज्ञा साधक को आगे की योग की अवस्था कौन सी है उसका भी प्रकाश साधक की बुद्धि में करती है | साधक को चाहिए की निकटवर्ती योग की अवस्था में पुनः धारणा-ध्यान-समाधि की एकरूप साधना करके योग की अवस्था को भी पार करे, यही क्रम महर्षि जी इस सूत्र के माध्यम से बता रहे हैं, यदि साधक निकटवर्ती योग की अवस्था को छोड़कर उससे आगे की अवस्थाओं में संयम का अभ्यास करता है तो निश्चित ही योग मार्ग में व्यवधान खड़े हो जायेंगे |
महर्षि इस सूत्र के माध्यम से एकबार फिर क्रमबद्ध साधना एवं क्रमबद्ध फल प्राप्ति का महत्व बता रहे हैं |
संयम सिद्धि के बाद उपजी विशेष प्रज्ञा से साधक को सहज ही यह ज्ञान प्राप्त हो जायेगा लेकिन महर्षि फिर भी आगाह कर रहे हैं जिससे कि किसी भी प्रकार की मानवीय गलतियों के लिए कोई भी स्थान शेष न रह जाये |
सूत्र: तस्य भूमिषु विनियोगः
योग की भूमियों में संयम करके
लगातार जीतने का दम भरके
अवस्थाओं को जिसने जीता
क्लेशों से उसका जीवन रीता
धीरे धीरे संयम के विशेष नियोग से
प्राप्त विवेकशक्ति के उपयोग से
योगी पूर्ण संयमित हो जाता
विविध ऐश्वर्य युक्त शक्तियों को पाता
योग करने से योग है बढ़ता
योगी स्वयं को प्रभु आज्ञा में गढ़ता
जो योग में अप्रमादी हुआ है
उसी ने सर्वोच्च लक्ष्य छुआ है। ।।6।।
धारणा-ध्यान और समाधि
अंतिम तीन अंग है अष्टांग योग के
सम्प्रज्ञात समाधि से निकटतम साधन हैं