जब साधक क्रिया योग के माध्यम से या अभ्यास और वैराग्य के माध्यम से अपने चित्त को एकाग्र करता हुआ योग में बरतता है तब धीरे धीरे एकाग्र चित्त के परिणाम स्वरुप उसका ध्येय विषयक ज्ञान अखंड बना रहता है, एकरस बना रहता है |
चित्त एक ज्ञान की तरंग के मिटने पर तत्क्षण उसी प्रकार के ज्ञान की तरंग को उत्पन्न करता है और साधक के अनुभव में आता है जैसे एकरस रूप में ज्ञान की अनवरत धारा बह रही हो |
पूर्व सूत्र में चित्त जब चंचल होता था तो चित्त की एकाग्र स्थिति विलुप्त हो जाती थी और जब एकाग्र चित्त होता है तब चंचलता का नामोनिशान मिट जाता था लेकिन एकाग्र चित्त में अखंड, एकरस ज्ञान की धारा रहती है, जिसे महर्षि एकग्रता के परिणाम के रूप में बता रहे हैं |
एकाग्रता के परिणाम स्वरुप क्या होता है और उसकी वैज्ञानिक प्रक्रिया कैसे होती है उसे यहाँ इस सूत्र के माध्यम से समझाया गया है | जैसे तेल की धार जब नीचे की ओर गिरती है तब दिखने से लगता है कि लगातार एकरस होकर गिर रही है लेकिन तेल के अणुओं की धार जुड़ती हुई जा रही होती है लेकिन यह प्रक्रिया इतनी तीव्रता से होती है कि दिखने और अनुभव करने में यह धार का अनुभव देती है | चित्त की एकाग्रता में भी यही विज्ञान छुपा हुआ है, एक ज्ञान की तरंग के बाद उसी ज्ञान की दूसरी तरंग इतनी तीव्रता के साथ जुड़ती है कि चित्त को बीच में किसी प्रकार का अवकाश शेष नहीं रहता है और चित्त किसी अन्य विषय या ज्ञान का चिंतन नहीं कर पाता है |
इस प्रकार एकाग्र चित्त के परिणाम के विषय में महर्षि ने इस सूत्र के माध्यम से समझाया है |
सूत्र: ततः पुनः शान्तोदितौ तुल्यप्रत्ययौ चित्तस्यैकाग्रतापरिणामः
ध्यान का है परिणाम एकाग्रता
तब मिटती है जीवन में व्यग्रता
शांत सरल चित्त सहज हो जाता
एक विषयक का ही ज्ञान कराता
एक ज्ञान का प्रवाह बना है रहता
खंडित होता पर बहाव सना है रहता
एकाग्र चित्त का देखो यही परिणाम है
एक ज्ञान कराना, चित्त का यही काम है