न च तत्सालम्बनं तस्याविषयीभूतत्वात् ॥ ३.२०॥
आगे महर्षि कह रहे हैं कि योगी को दूसरे के चित्त पर संयम करने से केवल चित्त में उठ रहे भावों का ही ज्ञान होता है न कि दूसरे के चित्त के विषयों का | कहने का तात्पर्य यह हुआ कि दूसरे के चित्त में भावों और संस्कार रूप में जो कुछ राग, द्वेष आदि चल रहे हैं उनका ज्ञान योगी को हो जाता है लेकिन वह राग या द्वेष किस विषय में हो रहा है या किस व्यक्ति या वस्तु के लिए हो रहा है उसका पता योगी को नहीं लगता है | ऐसा क्यों होता है तो उस विषय में महर्षि कह रहे हैं कि योगी के संयम करने का आलम्बन दूसरे व्यक्ति का चित्त मात्र है न कि उसके चित्त के विषय,इसलिए केवल चित्त में उठ रहे भावों का ही ज्ञान योगी को होगा |
यहां महर्षि संयम के विषय की महत्त्ता बता रहे हैं और जितना संयम का क्षेत्र होगा उतना ही ज्ञान संभव होता है इस वैज्ञानिक प्रक्रिया को सबके सामने ला रहे हैं | जब विभूतिओं की बात आती है तो चमत्कार शब्द सम्मुख आता है लेकिन महर्षि पतंजलि विभूतिओं के साथ प्रक्रिया और परिणाम दोनों को जब एक साथ रखते हैं तो यह सबकुछ एक वैज्ञानिक अर्थ ले लेता है |
परमात्मा ने इस पूरी सृष्टि को इस प्रकार बनाया है कि जब व्यक्ति इसके विषय में चिंतन और शोध करे तो इससे मनुष्य नया सृजन करेऔर वह परमात्मा की तरफ भी खिंचा चला जाये | यह सृष्टि में विविध प्रकार के जो चमत्कार प्रतिदिन होते हुए दिखते वे परमात्मा को भूलाने को नहीं अपितु परमात्मा की ओर मन को लगाने के लिए होते हैं |
“अन्ति सन्तं न जहाति, अन्ति सन्तं न पश्यति पश्य देवस्य कार्यं न ममार न जीर्यति-(अथर्व. १०/८/३२)