सोपक्रमं निरुपक्रमं च कर्म तत्संयमादपरान्तज्ञानमरिष्टेभ्यो वा ॥ ३.२२॥
सोपक्रमं कर्म मृत्यु का का अर्थ होता है जो शीघ्रता से फल देने वाले कर्म हैं और निरुपक्रमं कर्म का अर्थ होता है ऐसे कर्म जो देरी से फल देते हैं | जब योगी ऐसे दोनों प्रकार के कर्मों पर भली भातिं संयम करते हैं तो योगी को शरीर की मृत्यु का पूर्व ज्ञान हो जाता है |
इसके साथ ही योगी को कुछ अशभु संकेत दिखाई देने से भी मृत्यु का पूर्व ज्ञान हो जाता है अतः यहाँ मृत्यु के पूर्व ज्ञान में दो साधन कहे गए हैं | एक शीघ्र फल देने वाले कर्मों एवं विलम्ब से फलित होने वाले कर्मों में धारणा-ध्यान-और समाधि रूप संयम करने से और दूसरा अपशकुन या संकेतों के प्राप्त होने से भी मृत्यु का पूर्व ज्ञान होता है |
कैसे शीघ्र और विलम्ब से फल देने वाले दो प्रकार के कर्मों में संयम करने करने से योगी को शरीर की मृत्यु का पूर्व ज्ञान हो जाता है ? जब योगी शीघ्र और विलम्ब से फल देने वाले कर्मों पर संयम करता है तो इस प्रक्रिया में वह अपने द्वारा किये गए कर्मों का स्मरण करता है तब अब तक जिन कर्मों के त्वरित फल उसे मिले थे और जिनके फल उसे बहुत बाद में मिले तो उसके मन में एक पैटर्न बैठ जाता है जो उसके अनुमान ज्ञान को उसके अपने विषय में अत्यधिक पुष्ट करता जाता है | उसे वे सभी कर्म जिनके फल अभी तक नहीं मिले स्मरण आने लगते हैं जिनपर वह संयम करता है तो उसके जीवन में वे कब फलित होंगे उसे अनुमान होने लग जाता है | ऐसे ही हमारा यह जीवन भी किन्हीं कर्मों का फल है और मृत्यु भी एक प्रकार से कर्मों है लेकिन मृत्यु एक ऐसा कर्म फल है जो आगे भविष्य में विपाक को प्राप्त होगा | अतः जब योगी मृत्यु रूपी निरुपक्रम कर्म को अपने संयम का विषय बना लेता है तो उसे पूर्व में ही मृत्यु का ज्ञान हो जाता है |
इस प्रक्रिया से जब हम अपने जीवन के कर्मों के ऊपर संयम करते हैं तो बहुत सारे कर्मों के फल हम भोग चुके होतें हैं और कुछ कर्म ऐसे समझ में आते हैं अभी फलोन्मुख हुए ही नहीं | एक तरफ जहाँ इस प्रकार के संयम से विभूति प्राप्त होती है वहीँ जीवन और कर्म- एवं कर्म फल की व्यवस्था को समझने का अवसर मिलता है और जीवन में साधना आगे बढ़ती है |