इससे पूर्व के सूत्र के द्वारा महर्षि ने चित्त के निरोध परिणाम को बतलाया था, अब वे बता रहे हैं कि जब चित्त निरोध संस्कार से युक्त हुआ रहता है तो चित्त की क्या स्थिति रहती है?
जब चित्त में व्युत्थान संस्कार दब जाते हैं और चित्त में निरोध संस्कार उदित हो जाते हैं और लम्बे समय तक तेल धारा के समान निरंतर बने रहते हैं तो चित एक दम शांत, प्रशांत हो जाता है , दुसरे शब्दों में कहें तो निर्मल, विमल हो जाता है |
चित्त का ऐसे शांत एवं प्रशांत स्थिति में आने का कारण केवल निरोध संस्कारों के कारण ही होता है | इसलिए योग साधना के पथ पर साधक को अलग अलग पड़ावों को पार करते हुए कभी व्युत्थान संस्कारों को हटाना पड़ता है और निरोध संस्कारों को प्रयत्न पूर्वक धारण करना पड़ता है | यह भी संभव है कि योग के अनेक सोपानों में जो संस्कार निरोध संस्कार की तरह आपकी स्थिति को ऊँचा उठाते हैं , वही निरोध संस्कार प्राप्त स्थिति से ऊपर की स्थिति के लिए व्युत्थान संस्कार बन जायेंगे |
इसलिए योग साधना के पथ पर सदैव नवीनता बनी रही रहती है और सदैव नयी स्थिति एवं उसे प्राप्त करने के साधनों का अभ्यास करते रहना पड़ता है और साथ में ही जिन संस्कारों (अभ्यास) के आधार पर साधक आगे बढ़ता है कभी कभी उन्हें छोड़कर, बिना राग के आगे बढ़ना पड़ता है |
जैसे, जब हमें नदी पार करनी होती है तो हम नौका को सहारा बनाकर दुसरे तट पर पहुँच जाते हैं, लेकिन तटनौल छोड़कर आगे के मार्ग पर बढ़ने के लिए हमने उसी नौका को त्यागना पड़ता है जिसके कारण से हम तट तक पहुँच पाए थे | अब कोई ऐसे समय में यह कहने लगे कि मैं नौका को नहीं त्याग सकता क्योंकि इसी के कारण तो मैं यह दुर्गम नदी पार कर पाया तो इस हेतु से तो कभी भी अंतिम गंतव्य तक नहीं पहुंचा जा सकता है | इसलिए कभी कभी योग साधक किसी साधन विशेष के राग में पड़कर अंतिम लक्ष्य को विस्मृत कर देता है | अतः निरोध संस्कार का व्युत्थान में बदलना यह सबकुछ एक नयी और ऊँची योग की अवस्था को प्राप्त करने के लिए ही है |
सूत्र: तस्य प्रशान्तवाहिता संस्कारात्
निरोध अवस्था में क्या होता है?
बीज शांति के मन बोता है
सहज सरल चित्त बहता अविरल
बंद हो जाते हैं सब कोलाहल
निरोध अवस्था का परिणाम यही है
शांत मन -चित्त का विश्राम यही है
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