कायाकाशयोः सम्बन्धसंयमाल्लघुतूलसमापत्तेश्चाकाशगमनम् ॥ ३.४२॥
प्रस्तुत सूत्र में महर्षि आकाश गमन रूप सिद्धि की बात कर रहे हैं | जब योगी अपने शरीर और आकाश के बीच के सम्बन्ध एवं हल्केपदार्थों जैसे रुई आदि में संयम करता है तो एक निश्चित प्रकिया से उसका शरीर और मन या चित्त भी हल्का हो जाता है जिससे वह आकाश में ऊपर उठने लग जाता है |
आकाश गमन के दो अर्थ निकाले जा सकते हैं- ऊपर दूर आकाश में गति करना और एक है पृथ्वी से ठीक ऊपर जो खाली स्थान है उसमें गति करना | क्योंकि जब महर्षि पतंजलि आकाश शब्द का प्रयोग करते हैं तो उसका अर्थ केवल खाली स्थान से है | अंग्रेजी में भी आकाश का अनुवाद करें तो स्पेस शब्द है उसके लिए और स्पेस का अर्थ भी खाली स्थान ही होता है |
योगी अपनी साधना से जब शरीर और आकाश के बीच के परस्पर सम्बन्ध में और हल्के पदाथों के ऊपर अपनी धारणा-ध्यान और समाधि को एक साथ लगाता है तो उसमें हल्कापन आने से वह जमीन से थोडा ऊपर उठना शुरू कर देता है | गुरुत्वाकर्षण के विपरीत जाकर वह ऐसा नहीं करता अपितु योगी स्वयं के भार को हल्का कर देता है |
इस बात को थोडा अलग तरीके से समझते हैं- कई बार आपने महसूस किया होगा कि आपका शरीर आपको भारी लगता है जबकि कोई अतिरिक्त वजन आपका बढ़ा नहीं है लेकिन आपके अनुभव में आता है जैसे शरीर में खूब भारीपन है | जबकि वस्तुतः ऐसा कुछ होता नहीं है, उसी प्रकार कभी कभी आपको सबकुछ हल्का हल्का लगता है, ऐसा लगता है जैसे आप बहुत सहजता से तीव्र गति से चल रहें हैं | क्योंकि आपको मानसिक और शारीरिक रूप से अपने भीतर एक हल्कापन महसूस होता है |
यह बात तो मैंने सामान्य लोगों के विषय में कही है लेकिन जब योगी अपनी साधना से एक प्रक्रिया के अनुसार आगे बढ़ता है तो उसके शरीर में जो हल्कापन आता है वह उसे पृथ्वी से ऊपर उठा देता है और जब वह चलता है तो ऐसा लगता है जैसे पृथ्वी से ऊपर ऊपर चल रहा हो, इसी को महर्षि पतंजलि आकाश गमन की सिद्धि कह रहे हैं |
वर्तमान में योग ऋषि रूप परम पूज्य गुरुदेव पूज्य स्वामी रामदेव जी महाराज जी जब चलते हैं तो अनेकों बार ऐसा एहसास होता है जैसे वे पाँव धरती पर रखते ही न हों क्योंकि उनकी चाल में एक अभूतपूर्व गति होती है | जब वे एकांत में चलते हैं तो उनके इस प्रकार चलने की रीति से लगता है जैसे वे अत्यंत हल्के होकर विचरण कर रहे हों |