श्रोत्राकाशयोः सम्बन्धसंयमाद्दिव्यं श्रोत्रम् ॥ ३.४१॥
महर्षि पतंजलि कह रहे हैं कि जब योगी अपने कानों और आकाश के बीच के सम्बन्ध के ऊपर धारणा-ध्यान और समाधि रूप संयम को साध लेता है तो योगी का श्रवण दिव्य हो जाता है | वह सूक्ष्म से भी सूक्ष्म आवाजों को सुनने में सक्षम हो जाता है |
शब्द और आकाश का जो सम्बन्ध है वह बहुत गहरा सम्बन्ध है | आकाश पञ्च महाभूत में से एक महाभूत तत्त्व है जिसकी तन्मात्रा शब्द अर्थात ध्वनि है | और शब्द का आधार आकाश होता है अर्थात खाली स्थान | शब्द या ध्वनि केवल खाली स्थान में ही गति कर सकती है तो जितना खाली स्थान होगा उतना शब्द आसानी से गति करेगा | यदि बीच में किसी भी प्रकार की बाधा आती है तो शब्द की गति अवरुद्ध हो जाती है |
इसलिए आपने देखा है कि बंद कमरे से आवाज बाहर नहीं जाती है क्योंकि उसमें दीवार रूपी बाधा आ जाती है | अतः महर्षि कह रहे हैं कि शब्द और आकाश का जो अबाधित सम्बन्ध है, उस पर जब योगी संयम करता है तो इस प्रक्रिया में ही पहले से बेहतर श्रवण शक्ति होने लग जाती है और धीरे धीरे इस प्रकार के संयम से दिव्य श्रवण शक्ति योगी को प्राप्त हो जाती है |
आप स्वयं इस प्रक्रिया को अनुभव करने का प्रयास करेंगे तो आपको महसूस होगा कैसे आप अपने आस पास आ रही सूक्ष्म आवाजों को सुनने में सक्षम हो पा रहे हैं |
विशेष:
पञ्च महाभूत- पृथ्वी-जल-अग्नि-वायु-आकश
पञ्च ज्ञानेन्द्रिय- आँख-कान-नासिका-जिह्वा-त्वचा