तपः स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि क्रियायोग: ।। 1 ।।
साधन पाद का यह प्रथम सूत्र है। समाधि पाद में योग के मूलभूत एवं उच्च सिद्धांतों का प्रतिपादन करने के बाद महर्षि साधन पाद का आरंभ करते हैं। साधन पाद में क्रियायोग एवं अष्टांग योग के माध्यम से समाधिलाभ प्राप्त करने की विधियों एवं उपायों के ऊपर दृष्टि डाली गई है।
शिष्यों को सर्वप्रथम क्रिया योग के रूप में पहला साधन बताते हैं।
क्रियायोग: तप, स्वाध्याय एवं ईश्वर प्रणिधान इन तीन साधना पद्धति का समग्र अनुष्ठान क्रिया योग के नाम से कहा गया है।
कोई भी व्यक्ति जो योग मार्ग पर अपनी यात्रा प्रारम्भ करना चाहता है वह इन तीन प्रकार की साधनाओं को एक साथ अनुष्ठान के रूप में कर सकता है। इसके लिए किसी विशेष योग्यता की आवश्यकता नहीं है। ऐसी साधना पद्धति जिसे समझकर कोई भी अपना कार्मिक अनुष्ठान प्रारंभ कर सकता हो।
तप: द्वन्दों को सहन करने का नाम तप है। द्वंद्व हैं-सुख दुख, लाभ हानि, मान अपमान, सर्दी गर्मी आदि। जीवन में व्यक्ति अनेक प्रकार जे द्वन्दों से घिरा रहता है अतः किसी भी साधक को इन द्वन्दों को सहने का अभ्यास करना चाहिए जिससे उसके भीतर तप का अंश निर्मित होने लग जाये और उसकी सहनशक्ति बढ़कर उसे किसी भी प्रकार के उलझन से, विचलन से बचा ले।
ऐसा कहा गया है कि जो तपस्वी नहीं है उसका योग सिद्ध नहीं होता है। अर्थात जो तपस्वी नहीं होगा तो निश्चित रूप से वह द्वन्दों से भरा होगा और विचलन की स्थिति में होगा। विचलन और द्वंद्व से भरे व्यक्ति में योग घटित नहीं हो सकता है।
अतः तपस्वी होने को हमें अनिवार्य रूप से प्रथम और महत्त्वपूर्ण चरण समझना चाहिए।
योग के जितने भी साधन होंगे वहां अभ्यास और वैराग्य की उपस्तिथि अवश्यमेव होगी। योग के सब प्रकार के साधनों के अनुष्ठान में अभ्यास और वैराग्य ये दो सर्वोपरि साधनों की आहुति अवश्य लगेगी।
तप का निरंतर अभ्यास और तप के अनुष्ठान में बाधक तत्वों के प्रति वैराग्य, यह सबकुछ योगी के लिए कर्तव्य है।
स्वाध्याय स्व का अर्थ है स्वयं और अध्याय का अर्थ है अध्ययन। स्वयं का अध्ययन। स्वाध्याय का दूसरा अर्थ है ऐसे शास्त्रों का अध्ययन जो योगी की अक्लिष्ट वृत्तियों को उभारे तथा क्लिष्ट वृत्तियों को नष्ट करने नें सहायक हों। ऐसे शास्त्र या गुरु वचन जो योगी को योग मार्ग पर बनाये रखें, उसे योग की स्थिति से नीचे न आने दें।
स्वाध्याय एक एन्टी वायरस की तरह है जो बीच बीच में आने वाले संशयों को दूर करके बार बार साधक को योग मार्ग पर उन्मुख करता है। यदि कोई साधक तप तो करता है, ईश्वर प्रणिधान भी करता है तो उसे कभी कभी संशय घेर सकता है उस स्थिति में उसके योग मार्ग से गिरने की संभावना भी रहती है अतः समग्र रूप से क्रिया योग का अनुष्ठान करणीय है।
स्वाध्याय से साधक स्वतः योग मार्ग पर आरूढ़ रहता है।
ईश्वर प्रणिधान: मन,वचन, वाणी से अपने समस्त कर्मों को बिना फल की इच्छा किये सर्वमना ईश्वर को समर्पित कर देना ईश्वर प्रणिधान कहलाता है। ईश्वर प्रणिधान नें साधक स्वयं को निमित्त मात्र मानकर कर्मयोग का आश्रय लेकर, अपने आश्रम विहित कर्मों को असंशयित होकर करता है जिससे वह द्वंद्व रहित हो जाता है और समाधि की ऊंची स्थिति तक पहुंच जाता है।
योग में ईश्वर प्रणिधान एक प्रमुख साधना पद्धति गई जिसका अवलम्बन लेकर किसी भी श्रेणी का साधक योग के सर्वोपरि लाभ समाधि तक को प्राप्त कर सकता है।
इन तीन क्रियाओं का समग्र रूप से अनुष्ठान करते रहने से, योग यात्रा अच्छे से आगे बढ़ जाती है।
सूत्र: तपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि क्रियायोगः
द्वंद्वों को साधक सहन करो,
स्वाध्याय व्रत का निर्वहन करो
पुण्यापुण्य प्रभु-अर्पण कर
तब साधना तुम सघन करो
इस योग यात्रा में क्रिया योग का
पग पग साधक अनुगमन करो
योग मार्ग के पथिक कौन हैं?
जो तप अवलम्बित और मौन हैं
स्वयं का जो अध्ययन हैं करते
सांस सांस ईश्वर प्रणिधान का भरते
बिना तप के योगी भला कौन हुआ है?
क्रियायोग आश्रित योगी जो मौन हुआ है।
द्वन्दों को जिसने सहन किया
अबाधित क्रिया योग का निर्वहन किया
सुख में ना सुखी जो दुखी न दुख में हुआ हुआ
सब कर्मों को अर्पित कर जो प्रभु-उन्मुख हुआ
वह तपस्वी वह स्वाध्यायव्रती
ईश प्रार्थना में जिसकी रची बसी मति
वह सदा बढ़ा है योग के पथ पर
दृढ़ इच्छाशक्ति का सम्बल लेकर
और भव सागर से तर जाता है
साधक योग में संवर जाता है।
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आभार शुभ जी, हमारा प्रयास है कि हम सरल और सहज शब्दों में आपको योग सूत्रों की आनुभूतिक व्याख्या उपलब्ध करा पाएं। सभी को इस ज्ञान यज्ञ में सम्मिलित करें
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इस अद्भुत व उपयोगी दैवीय कार्य हेतु आपको हृदय से धन्यवाद आचार्य श्री!💐🙏🕉️💐
अत्यन्त ही उपयोगी अध्ययन सामग्री उपलब्ध कराने के लिए हृदय के अंतस्तल से आभार🙏
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आभार इस दैवीय कार्य के लिए आपको बहुत बहुत धन्यवाद।
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