अविद्या, अस्मिता नामक दो क्लेशों को विस्तारपूर्वक समझाने के बाद राग तीसरा क्लेश है जो सामान्य रूप से प्रत्येक मनुष्य में प्रकट रूप में पाया ही जाता है।
जब कभी भी हम किसी भी सुख को भोगते हैं तो भोगने के बाद हमारे अंतःकरण (मन-बुद्धि-चित्त-अहंकार) में उस सुख और जिन साधनों से हमें सुख प्राप्त हुआ था उनके प्रति पुनः भोग करने की जो इच्छा है, वह इच्छा विशेष या लोभ विशेष को राग नाम का क्लेश कहते हैं।
सुख भोगने में तो सभी को अच्छा लगता है लेकिन सुख भोगने में उतनी हानि नहीं है जितनी सुख भोगने के बाद राग नाम का क्लेश आपको जीवन भर आगे दुखों में डालता रहेगा। इसलिए साधु संत जब सन्यास लेते हैं तो राग और द्वेष रूपी इन दोनों क्लेशों को छोड़ने के लिए सर्व सम्भव सुखों से और सांसारिक सभी द्वेषों से अपना मुँह मोड़ लेते हैं।
राग और द्वेष ये दो क्लेश ही दैनिक जीवन में हमें क्लेशों के बीच फंसाकर हमारे संस्कार प्रबल करते रहते हैं इनसे बचना ही योग मार्ग पर आगे बढ़ने की सफलता है।
राग कैसे बन जाता है- मान लीजिए कि आपने जिह्वा से कोई सुख लिया। गुलाब जामुन खाया और उसे स्वाद ले लेकर खाया तो आपके अंदर के अन्तःकरण रूपी सॉफ्टवेयर में गुलाब जामुन के प्रति सुख की इच्छा अंकित हो गई। अगली बार जब गुलाब जामुन आपके सम्मुख होगा तब पुरानी स्मृति या याद अन्तःकरण देगा और आपको भीतर से धक्का देगा कि गुलाब जामुन खाओ। यदि सहज उपलब्ध है तो आप खा लेंगे लेकिन यदि गुलाब जामुन प्राप्त करने में कोई बाधा आ रही है तो आपको बैचेन भी करने लग जायेगा। यह सब राग नाम का क्लेश करा रहा है।
यदि गुलाब जामुन देने में कोई व्यक्ति ही बाधा बन रहा है तो तुरंत ही उस व्यक्ति से आपका द्वेष हो जाएगा। इस प्रकार राग वाले विषय में जो भी बाधक होगा चाहे वह व्यक्ति हो, वस्तु हो या स्थान हो आप उससे द्वेष करने लग जाएंगे। जिस विषय में भी आपके राग की प्रबलता होगी उसके बीच आने वाले तत्त्वों में आप द्वेष करने लग जाएंगे। इस प्रकार राग और द्वेष दोनों आपके जीवन को हिलाने लग जाएंगे। फिर द्वंद्व, विचलन और उलझन जीवन में शुरू होती चली जायेगी। इसी प्रकार के जितने भी सुख हम अन्य इंद्रियों ( आंख, कान, नाक, त्वचा) से लेते हैं, उनके विषय में भी ऐसा ही समझ लेना चाहिए।
आगे के सूत्रों में बताएंगे कि कैसे ये क्लेश मानव के सुंदर जीवन को नारकीय बना देते हैं और कैसे हम इन क्लेशों से और सब प्रकार के दुखों से बच सकते हैं।
सूत्र: सुखानुशयी रागः
इंद्रियों से प्राप्त जितने भी सुख हैं
क्षण भर के हैं और लाते दुख हैं
यह सत्य समझ नहीं आता है
सुख बस दुख में उलझाता है
जब भी सुख भोगा एक बार
होगी इच्छा फिर बारम्बार
सुख चाहना के संस्कार बनेंगे
जन्म मरण के आधार बनेंगे
होगा चित्त जब इनसे भारी
इन्हें ही समझो मानसिक बीमारी
सुख के बाद फिर भोग की इच्छा
राग क्लेश है नाम इसी का
श्लोक पिछला ही इसमें लिख डाले है। कृपया सुधार करें।