प्रस्तुत सूत्र में महर्षि अब पञ्च क्लेशों में से प्रथम क्लेश अविद्या की परिभाषा कर रहे हैं, उसके स्वरूप के बारे में हम सबको बता रहे हैं।
साधक का कार्य है कि वह क्रियायोग का आश्रय लेकर समाधि की भावना को बढ़ाते जाए और साथ ही साथ अपने क्लेशों को क्षीण करते चले जाएं। इसके लिए क्लेशों के स्वरूप का ठीक ठीक ज्ञान अत्यंत आवश्यक है।
यदि कोई भी साधक इनके स्वरूपों को भली भांति समझपूर्वक समझ लेता है तो इनको निर्बल करने के लिए कृत संकल्पित हो सकता है और समय और साधना के साथ ये निर्बल हो सकते हैं।
अविद्या: सबसे पहली और महत्त्वपूर्ण बात यह है कि अविद्या सब क्लेशों की जननी है। सबके मूल में अविद्या ही उपस्थित है। अविद्या के होने मात्र से सारे बंधन और दुख हैं, क्लेश हैं।
ऐसा समझें कि अविद्या कारण (उत्पत्ति कर्ता) है तो बांकी चार क्लेश ( अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश) उसके कार्य हैं।
अविद्या के साथ साथ शेष 4 क्लेशों की पांच अवस्थाएं बताई गई हैं। ये सभी क्लेश इन 4 अवस्थाओं में डोलते रहते हैं। पांचवीं जो अवस्था है दग्धबीज, उसे प्रयत्नपूर्वक या योगस्थ होकर साधक को प्राप्त करनी पड़ती है।
जब साधक के चित्त में क्लेश केवल बीज रूप में होते हैं तो क्लेशों की ऐसी अवस्था प्रसुप्त कही जाती है। अभी इन क्लेशों का अंकुरण नहीं हुआ है, लेकिन ये अनुकूल वातावरण प्राप्त होने पर कभी भी प्रकट होकर मनुष्य को बंधन और दुख में डाल सकते हैं। जिन जिन क्लेशों के संस्कार कमजोर रूप में बीजभाव को प्राप्त हैं, उनके लिए अनुकूल वातावरण प्राप्त होने पर भी वे धीरे धीरे अपना प्रभाव दिखाते हैं, तुरंत से उद्बुद्ध नहीं होते। लेकिन जितना वे प्रकट होते हैं अगली बार वहीं से प्रकट होने लगते हैं। ऐसा नहीं होता है कि वे वापस अपनी बीज अवस्था को चले जाएं।
इसी प्रकार जिन क्लेशों के संस्कार मजबूत होते हैं या जो पूर्व में थोड़ा बहुत उगने शुरू हो गए थे, उनको अनुकूल वातावरण मिलने पर तत्क्षण अपना प्रभाव दिखाना शुरू कर देते हैं और मनुष्य को अपने अपने कार्य में प्रवृत्त कर देते हैं, द्वंद्व में डालना शुरू कर देते हैं और मनुष्य एक आंतरिक संघर्ष में पड़ जाता है।
यह प्रक्रिया केवल क्लेशों के बारे में ही नहीं अपितु अच्छे शुभ संस्कारों के लिए भी समझनी चाहिए।
प्रक्रिया निर्दोष होती है, वह तो संवाहक होती है। दोष हमारे चयन और संस्कारों का होता है। हमारी प्रवृति में होता है।
एक ही सीढ़ी हमें ऊपर भी चढ़ाती है और वही नीचे की ओर भी ले जाती है। हमें तय करना है कि हमें शिखर की ओर चढ़ना है या नीचे पतन की ओर।
चित्त में जब क्लेश थोड़ा बहुत उगा हुआ रहता है, न तो केवल बीज रूप में और न ही पूर्ण रूप से अंकुरित। क्लेशों की ऐसी अवस्था जब उनकी शक्ति क्षीण रूप में होती है और उनके कार्य रूप में प्रवृत्त होने की प्रबल शक्ति नहीं होती है। यदि कोई भी अनुकूल परिस्थिति आ जाये तो वह तनु अवस्था से उदार अर्थात कार्य रूप में शीघ्रता से आ जायेगा।
ऐसा समझें कि कोई व्यक्ति क्रोधी तो नहीं है पर अपने क्रोध को भीतर ही भीतर दबा के रखता है। जब भी क्रोध करने की स्थिति निर्मित होने की संभावना रहती है वह प्रयत्नपूर्वक रोक लेता है। यह क्रोध रूपी संस्कार की तनु अवस्था है। यदि मनुष्य क्रोध दबाने पर ध्यान न दे तो कभी भी क्रोध कर सकता है। इसी प्रकार राग, द्वेष, अभिनिवेश, काम, लोभ, मोह, मद, मत्सर, ईर्ष्या आदि क्लेशों या संस्कारों के विषय में समझ लेना चाहिए।
आज के समय में सभी क्लेश और बुरे संस्कार इस तनु अवस्था में है और लोगों के जीवन में क्रियायोग अर्थात तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान के अभाव के कारण सारे अनर्थ हो रहे हैं। सभी क्लेशों को जैसे ही अनुकूल आलंबन मिलता है तो वे उदार अवस्था में आकर मनुष्य को अपने अपने कार्य में प्रवृत्त कर देते हैं और फिर नाना प्रकार से बांधते रहते हैं। इस प्रकार पूरी दुनिया एक अनजाने से भय, चिंता और अवसाद का शिकार हो रही है।
विछिन्न: जब कोई एक क्लेश प्रबल रूप से उदार अवस्था में आ जाते हैं तो उसके विरोधी स्वभाव वाले क्लेश चित्त में नीचे दब जाते हैं। ऐसे क्लेशों को विछिन्न अवस्था वाला कहा जायेगा।
जैसे कोई व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति से द्वेष करता है। और अभी वह अपने बच्चे से अच्छे से प्रेम पूर्वक बात कर रहा है, उसके साथ खेल रहा है। उसकी बच्चे के प्रति राग का भाव प्रबल है। अचानक से ऐसा व्यक्ति उसके सम्मुख आ जाता है जिससे वह घनघोर द्वेष करता है तो उसके राग के भाव नीचे दब जाएंगे और द्वेष की प्रवृत्ति प्रबल हो जाएगी। इस स्थिति में जो राग नामक क्लेश है उसकी विछिन्न अवस्था हो जाएगी और द्वेष को उदार अवस्था वाला कहेंगे।
अतः स्पष्ट है कि क्लेशों क्लेशों की प्रसुप्त अवस्था बालपन में सबसे अधिक होती है। उसके बाद जैसे जैसे व्यक्ति संसार में विचरण करने लगता है उसके क्लेश धीरे धीरे तनु, फिर विछिन्न एवं उदार होते चले जाते हैं। यदि क्रियायोग का सहारा न लिया जाए तो मनुष्य में सभी क्लेश, विकार या तो विछिन्न अवस्था में रहेंगे या फिर उदार( प्रकट रूप में) रहेंगे।
उदार: जब कोई भी क्लेश अनुकूल वातावरण पड़ने पर तीव्र रूप में कार्य रूप में आ जाता है तो उसे उस क्लेश की उदार अवस्था में आना कहते हैं।
जैसे क्रोध का वातावरण प्राप्त होने पर जब तक क्रोध को दबाकर रखा जाता है तो वह क्रोध की तनु अवस्था और जब क्रोध प्रकट रूप में अर्थात जब व्यक्ति क्रोध करने लग जाता है तो उसे उदार अवस्था कहेंगे।
क्रोध के प्रबल होने पर उससे विपरीत प्रेम या स्नेह की विछिन्न अवस्था कही जाएगी।
दग्धबीज: क्लेशों की दग्धबीज की अवस्था केवल युक्त योगी जनों की होती है। जब किसी क्लेश की उदार या विछिन्न अवस्था को क्रियायोग के साधन से तनु किया जाता है और फिर योग मार्ग पर आगे बढ़ते हुए निर्बीज समाधि से पूरी तरह समाप्त किया जाता है।
जैसे किसी बीज को आग में भून दिया जाय तो उसमें अंकुरण की संभावना 100 प्रतिशत नष्ट हो जाती है। इसी प्रकार निर्बीज समाधि से पांचों क्लेशों को पूरी तरह भून (दग्धबीज) कर दिया जाता है और योगी निर्बीज अवस्था को या दग्धबीज अवस्था को प्राप्त हो जाता है। यही सबसे बड़ा लक्ष्य है।
अतः साधक एवं युञ्जन योगी को होशपूर्वक अपने क्लेशों की तनु अवस्था का ध्यान रखकर उन्हें उदार होने से पूर्व ही दग्धबीज करने का पूरा प्रयास करते रहना चाहिये। क्लेशों को तनु से उदार अवस्था में न लाने देने के लिए प्रतिपक्ष भावना रूपी साधन का बार बार प्रयोग करना चाहिए। प्रतिपक्ष भावना का अर्थ है कि जो भी विकार, या कुसंस्कार प्रकट होना चाह रहा है उसके विपरीत अच्छे या शुभ गुणों का चिंतन करना, कुसंस्कार या क्लेश के दुष्परिणाम का चिंतन कर उससे दूर हटने का प्रयास करना। इस प्रकार प्रतिपक्ष भावना से क्लेशों को उदार होने से बचाया जा सकता है और उन्हें दग्धबीज भी करने में आगे बढ़ा जा सकता है और अंतिम रूप से दग्धबीज करने के लिए निर्बीज या असम्प्रज्ञात समाधि का प्रयोग होता है।
सूत्र: अविद्याक्षेत्रमुत्तरेषां प्रसुप्ततनुविच्छिन्नोदाराणाम्
सब क्लेशों का उद्गम स्थान अविद्या
सब दुख बंधनों का स्थान अविद्या
सब क्लेश शक्ति इसी से पाते हैं
जीवन दुखमय कर जाते हैं
इसलिए अविद्या का नाश जरूरी
यही है सब क्लेशों की धूरी
शास्त्रों का इसमें एक विचार है
अविद्या का ही सब विस्तार है
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