जब योगी आसनों का अभ्यास करता है तब उसे किस प्रकार आसन करने चाहिए यह इस सूत्र में बतलाया गया है । लोक में जब आसन की बात आती है तब सामान्य रूप से स्थिरसुखमासनम् इस सूत्र का सन्दर्भ दिया जाता है । जबकि हमें इस सूत्र के साथ साथ अगले विधि सूत्र प्रयत्नशैथिल्यानन्तसमापत्तिभ्याम् को भी कहना चाहिए । तभी हम एक साथ आसन को ठीक ठीक समझ सकते हैं ।
यहाँ विषय अष्टांग योग का चल रहा है और तीसरे अंग के रूप में आसन की बात आई है । आगे प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि की बात भी की जाएगी । अष्टांग योग का अंतिम परिणाम समाधि लगना है अतः यहाँ आसन से महर्षि का आशय ध्यान में बैठने के आसन से ही होगा, यह स्पष्ट हो रहा है । बैठने के आसन के बाद अन्य जितने भी आसन हैं उनकी चर्चा यहाँ नहीं की गई है । लकिन सामान्य रूप से आसन की मूल परिभाषा कर दी गई है ।
अभी हम केवल प्राणायाम, धारणा और ध्यान हेतु बैठे जाने वाले आसन को केंद्र में रखकर समझने का प्रयास करेंगे ।
महर्षि स्पष्ट कह रहे हैं कि, आसन करते समय प्रयत्न की शिथिलता रखो । योगी को पद्मासन, सुखासन या सिद्धासन किसी भी एक आसन का चयन कर लेना चाहिए और फिर शरीर की चेष्टाओं को या किसी भी प्रकार की गतिविधिओं को शिथिल छोड़ देना चाहिए और साथ में मन को अनंत परमात्मा के आश्रय में लगा देना चाहिए । यदि योगी शरीर को ढ़ीला तो छोड़ देता है लेकिन मन को साथ में परमात्मा में नहीं लगाता है तो मन की भटकन से शरीर में भी विचलन होगा और आसन सिद्ध नहीं होगा अर्थात आसन स्थिर और सुखपूर्ण नहीं हो पायेगा । आसन की सिद्धि से शरीर में स्थिरता और सुख मिलेगा जिससे आगे प्राणायाम, धारणा, ध्यान करने में शरीर की स्थिति किसी भी प्रकार बाधा न पहुंचाएं । इसलिए आसन एक महत्त्वपूर्ण बिंदु है प्राणायाम, एवं ध्यान करने में ।
अतः योगी का सबसे पहला कार्य है कि वह आसन की सिद्धि हेतु अभ्यास करे, तभी उसे आगे के योग के अंगों में सफलता मिलेगी । आज आसन को नजर अंदाज करके साधक सीधे ध्यान लगाना चाहते हैं, सीधे प्राणायाम का अभ्यास करना चाहते हैं जिसके कारण से किसी का भी पूर्ण लाभ नहीं प्राप्त हो पता है ।
पद्मासन, सुखासन या सिद्धासन में बैठना और फिर सभी प्रयत्नों को रोक देना और साथ में मन को अनंत परमात्मा में लगाकर रखने के अभ्यास से धीरे धीरे आसन सिद्ध हो जायेगा जो फिर आगे प्राणायाम, ध्यान करने में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है ।
सूत्र: प्रयत्नशैथिल्यानन्तसमापत्तिभ्याम् ।।2.47।।
सूत्र: ततो द्वन्द्वानभिघातः ।।2.48।।
आसन सिद्धि का प्रयोग है क्या
किस विधि का सहयोग है क्या?
सब चेष्टाओं से पार हो जाओ
अनन्त आकाश में एकाकार हो जाओ
जब तक संभव शरीर को मोड़ो
फिर हर प्रयत्न का दामन छोड़ो
सहज सरल भाव से प्रतीक्षारत हों
इस प्रकार आसन में दीक्षारत हों
तब काल के गर्भ में आसन पलेगा
स्थिरता एवं सुख का मीठा फल देगा
सुख-दुख तब कम सताएंगे
मान अपमान में सम रह पाएंगे
तब द्वन्दों के आघात न होंगे
व्यक्ति के बुरे हालात न होंगे
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