शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय एवं ईश्वर प्रणिधान ये पांच नियम हैं ।
महर्षि , पांच यमों (अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह ) की विस्तृत चर्चा करने के बाद योग के दुसरे अंग नियम की व्याख्या करते हैं । नियम का अर्थ होता है जिन्हें हम नियमपूर्वक अपने दैनिक जीवन का हिस्सा बना लें, यदि इनके प्रयोग में अनियमितता आती है तो धीरे धीरे योग मार्ग ओझल होने लग जाता है । नियमों के पालन से भीतर और बाहर से एक स्पष्टता रहती है जिसके कारण से योग मार्ग पर एक निश्चित गति बनी रहती है | और यह सर्वविदित है कि जहाँ गति है वहीँ प्रगति है ।
बाह्य शुचिता एवं आन्तरिक शुचिता के आधार पर शौच के दो विभाग कहे गये हैं । यह शरीर दो प्रकार से मलिनता को प्राप्त होता है ।
१.शारीरिक रूप से
२.मानसिक रूप से
शारीरिक शुचिता यदि नहीं होगी तो मन भी अशांत एवं मलिन महसूस करेगा और यदि मानसिक शुचिता (वैचारिक शुचिता) नहीं होगी तो उसका असर शरीर पर भी पड़ेगा । आधुनिक विज्ञान में कहा जाता है कि अधिकतर बीमारियाँ सायको-सोमेटिक हैं अर्थात शरीर से मन की ओर या मन से शरीर की ओर आने वाली हैं । अतः शरीर और मन दोनों की शुचिता यह प्रथम नियम है ।
शारीरिक शुचिता- नित्य स्नान कर शरीर की शुद्धि करने को बाह्य शौच कहते हैं । मिट्टी एवं जल से प्राकृतिक रूप से शरीर को स्वच्छ रखा जाता है । आज के आधुनिक दौर में तो मिट्टी की जगह अनेकों प्रकार के साबुन आदि ने जगह ले ली है, फिर भी जितना संभव हो प्राकृतिक रूप से ही हम शरीर की शुद्धि रखने का प्रयास करें । जब शरीर शुद्ध रहता है तो मन स्वयं जी प्रफुल्लित रहता है अतः बाह्य शुचिता आंतरिक शुचिता के लिए बहुत आवश्यक है ।
आन्तरिक शुचिता- अपने भीतर के अंतःकरण की मलिनता को पवित्र विचारों एवं अहिंसा आदि यमों के अनुष्ठान से दूर करना ही आंतरिक शुचिता कहलाती है । जिस प्रकार शरीर को यदि स्वच्छ नहीं करेंगे तो कुछ ही दिनों में शरीर दुर्गन्ध छोड़ने लग जायेगा इसलिए नियमित रूप से स्नान करने से ही शरीर की शुद्धि बनी रहती है । उसी प्रकार अपने अंतःकरण की भी नित्य प्रति शुद्धि आवश्यक है । सामान्य रूप से शरीर तो सभी स्वच्छ रखते हैं लेकिन आंतरिक शुचिता की ओर कम ही लोगों का ध्यान रहता है । इस प्रकार भीतर की मलिनता तो सर्वाधिक होती है और सबसे अधिक आंतरिक मलिनता योग मार्ग में बाधा बनकर खड़ी रहती है । चित्त में जितने भी क्लेश, कुसंस्कार हैं वे सब भीतर की गंदगी हैं जिससे योगी को छुटकारा पाना होता है ।
आदि का त्याग करने से हमारी आन्तरिक शुद्धि होती है ।
संतोष- इस संसार में आनंद के बाद सबसे बड़ा कोई सुख है तो वह है संतोष का सुख । प्रभु प्रदत्त सामर्थ्य का पूर्ण प्रयोग करने के बाद प्रसाद रूप में जो कुछ प्राप्त हो, उसी में प्रसन्न रहना ही संतोष है । एक बात यहाँ ध्यान देने योग्य है कि सम्पूर्ण सामर्थ्य का प्रयोग करना आवश्यक है, यदि कोई मेहनत ही न करे और फिर जो कुछ फल स्वरुप में प्राप्त हो तो उसे संतोष कि निम्न श्रेणी में ही गिना जायेगा । कारण कि ईश्वर ने जितना करने का सामर्थ्य तुम्हें दिया था उसका तुमने अनादर किया । ईश्वर के दिए सामर्थ्य का अनादर तुम्हें भीतर भीतर ही चुभता रहेगा और अंततः तुम्हें संतोषी न बनाकर दुखी कर देगा । जीवन भर एक आन्तरिक द्वंद्व तुम्हें इसलिए परेशान करेगा कि तुम जो कुछ कर सकते थे, वह तुमने किया नहीं | सामर्थ्य एवं फल प्राप्ति के बीच एक लम्बी खाई निर्मित होती रहेगी और यही खाई तुम्हें बार बार एहसास दिलाएगी कि तुम कर सकते थे लेकिन तुमने किया नहीं | यही दुःख बन जायेगा | इसलिए पूर्ण पुरुषार्थ करने के बाद ही फल में आसक्ति रखे बिना जो कुछ परिणाम रूप में मिले उसे प्रसाद भाव से स्वीकार करना ही संतोष है ।
तप- क्रिया योग की व्याख्या करते समय भी तप को समझाया गया था | जीवन में आने वाले सभी द्वंद्वों को सहन करना ही तप है । सुख-दुःख, मान-अपमान, भूख-प्यास, हार-जीत, आदि जितने भी विपरीत परिस्थितियां हैं ये सभी द्वंद्व में डालने वाली होती हैं। इनसे विचलित हुए बिना प्रयत्नपूर्वक इनसे हटना भी तप है । यदि किसी भी प्रकार से इनके हटने का उपाय न हो तो बिना प्रभावित हुए इन्हें सहना भी तप है । द्वंद्व की विशेषता है कि यह एक आन्तरिक खिंचाव उत्पन्न करता है जिससे व्यक्ति की सहजता और सरलता बाधित होती है और वह विचलित हो जाता है । विचलन की इस स्थिति में वह योग मार्ग का अनुसरण नहीं कर सकता है इसलिए सब प्रकार के द्वंदों से मुक्त रहने के लिए तप का अभ्यास आवश्यक हो जाता है । अष्टांग योग के सभी आठ अंग, पुरुष के निर्विकार स्वरुप की प्राप्ति के लिए होते हैं अतः जितने प्रकार कि बढ़ाएं संभव हो सकती हैं, उन्हें दूर करने का प्रयास अष्टांग योग से निष्पन्न होता है । तप के विषय में अनेक लोग यह मानते हैं कि महीनो भूखे प्यासे रहकर शरीर और मन को साधना तप है, एक पाँव पर खडे रहना ही तप है, या फिर पञ्च भौतिक तत्त्वों को आधार बनाकर जैसे आग, पानी, हवा आदि के बीच रहकर कष्ट उठाने को तप कहते हैं । किन्हीं अंशों में इसे तप तो कहा जा सकता है लेकिन इनसे यदि शरीर कि विशेष हानि होती हो तो फिर ये योग में बाधक तत्त्व हैं, क्योंकि शरीर योग मार्ग में साधन है और यदि साधन ही स्वस्थ या कार्य करने में अक्षम है तो फिर कैसे आगे प्रगति होगी । ज्ञानपूर्वक या विवेक पूर्वक अपने दैनिक जीवन में आने वाले द्वंद्व रूपी कष्टों को सहना ही वास्तविक तप है, अलग से तप करने की आवश्यकता ही नहीं है | शारीरिक तप तो हो सकता है अभ्यास से सिद्ध भी हो जाये पर सुख-दुःख, मान-अपन, जय-पराजय को अभ्यास के साथ साथ आचरण से भी सहा जाता है ।
स्वाध्याय: अपने स्वयं के स्वरुप के विषय में सजग रहना एवं ऐसे ग्रन्थ जो समाधि की भावना को बल देते हों एवं गुरु मुख से सुने गए मोक्षदायक वचनों का बार बार चिंतन और मनन स्वाध्याय कहलाता है । वेद, उपनिषद, दर्शन, गीता, नीति वाक्यों का अध्ययन करना स्वाध्याय कहलाता है । प्रणव एवं गायत्री मन्त्रों का अर्थ पूर्वक जप करना भी स्वाध्याय के अंतर्गत आता है । यदि कोई साधक नियमित रूप से स्वाध्याय नहीं करता है तो योग मार्ग पर बढ़ने की उसकी इच्छा न्यून होती चली जाती है जिसके कारण वह शिथिल पड़ जाता है अतः यह अत्यन्त आवश्यक है कि साधक स्वाध्याय का साथ कभी न छोड़े ।
ईश्वर प्रणिधान : लौकिक चाहना हो या पारलौकिक चाहना, उसकी प्राप्ति के लिए अपने सभी कर्मों को पूरी तरह ईश्वर को समर्पित कर देने का भाव ही ईश्वर प्रणिधान कहलाता है । ईश्वर प्रणिधान में साधक स्वयं को कर्म करने में निमित्त मानता है और फिर उसके भीतर कर्म करने के सामर्थ्य को भी ईश्वर का दिया हुआ मानकर कर्म करता है । फिर फल की इच्छा न करता हुआ जो कुछ फल स्वरुप मिल जाये उसे अनुग्रह के भाव से स्वीकार करता है । ईश्वर प्रणिधान एक ऊँची स्थिति है जो साधक को सीधे समाधि के लाभ तक पहुंचा सकती है ।
सूत्र: शौचसंतोषतपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमाः
यम अनंतर अब नियम सुनो
शौच-संतोष और तप चुनो
स्वाध्याय करो-ईश्वर प्रणिधान करो
5 नियमों का जीवन में आधान करो
5 ही यम और 5 नियम हैं
योगी सुख-दुःख में जो सम हैं
मन वचन कर्म से शुचिता रखते
मैत्री करुणा और मुदिता रखते
कर्त्तव्य कर्मों में लगन लगाओ
फल रूप में फिर जो कुछ पाओ
प्रसाद रूप में सब स्वीकार करो
संतोषी जीवन का आभार भरो
सत्य है जीवन में उलझन होंगे
पग-पग द्वन्दों के विचलन होंगे
मन, शरीर-वाणी के तप से
निर्भ्रांत हो जाते हैं इन सब से
सद्ग्रन्थों के अध्ययन-अध्यापन से
गुरुमुख वचनों के सत्यापन से
योगबल का का अर्जन करो
प्रभु चरणों में भाव अर्पण करो
निमित्त मात्र बनकर जो जिया है
आनंद रसामृत का पान किया है