दुख के स्वरूप एवं उसके कारण दृष्टा एवं दृश्य के अज्ञानजनित संयोग के बारे में बताने के बाद महर्षि दृश्य के स्वरूप में बताने के लिए इस सूत्र पर चर्चा कर रहे हैं।
अब हम अगले सूत्रों में दृश्य और दृष्टा के बारे में विस्तार से समझेंगे।
दृश्य: जो प्रकाशशील, क्रियाशील एवं स्थितिशील, भूत और इन्द्रिय स्वरूप है एवं पुरुष के किये भोग एवं अपवर्ग रूपी प्रयोजन द्वय को सिद्ध करता है, उसे दृश्य कहते हैं।
दृश्य को आप प्रकृति के नाम से भी कह सकते हैं। सरल अर्थों में कहें तो सत्त्व (प्रकाशशील), रजस (क्रियाशील) एवं तमस (स्थितिशील) से बना तत्त्व दृश्य कहलाता है। इसके साथ ही पृथ्वी आदि जो पांच महाभूत हैं और जो 10 इन्द्रिय (ज्ञानेन्द्रिय एवं कर्मेन्द्रिय) समूह है यह भी दृश्य कहलाता है।
दृश्य का यह सारा स्वरूप निष्प्रयोजन नहीं है अपितु यह जीवात्मा के लिए भोग और अपवर्ग सिद्ध करवाने के लिए है।
दृश्य पुरुष के लिए साधन स्वरूप है। और यह साधन योगियों के लिए भी है और सांसारिक लोगों के लिए भी है।
सांसारिक व्यक्तियों के भोग के लिए भी काम करता है और यदि कोई भोगों से छूटना चाहता है तो भी इसे अपवर्ग अर्थात मुक्ति प्रदान करने के लिए काम करता है। अतः एक ही साधन से दोनों प्रकार के लोगों के प्रयोजन को सिद्ध करता है दृश्य।
इस प्रस्तुत सूत्र में दृश्य के बारे में ठीक प्रकार से उसका स्वरूप बता दिया गया है।
साधक को चाहिए कि वह दृष्टा और दृश्य के स्वरूप को एक बार ठीक ठीक से समझ ले जिससे वह अपना प्रयोजन भी ठीक से निर्धारित कर ले और जिस साधन से अपवर्ग प्राप्त करना चाहता है उसे भी ठीक से जान ले जिससे वह उसका ठीक प्रकार उपयोग कर पाएं।
सूत्र: प्रकाशक्रियास्थितिशीलं भूतेन्द्रियात्मकं भोगापवर्गार्थं दृश्यम् ।।2.18।।
सूत्र: विशेषाविशेषलिङ्गमात्रालिङ्गानि गुणपर्वाणि ।।2.19।।
दृश्य की परिभाषा अब कहते
जिसमें इंद्रियां रह रह कर बहते
प्रकाश, क्रिया और स्थिति स्वभाव की
जड़ स्वरूपा और चेतन अभाव की
दृश्य, भूत और इंद्रिय स्वरूप है जो
मूल प्रकृति के अनुरूप है जो
दो खास प्रयोजन दात्री है
भुक्ति मुक्ति प्रदात्री है
भोग दिलाती, गुण तीन कहाती
अपवर्ग दिलाकर विलीन हो जाती
दृश्य के कुछ विभागमात्र कहे हैं
विशेष, अविशेष, अलिंग और लिंगमात्र कहे हैं
विभाग, भेद या अवस्था हैं ये
प्रकृति की ही व्यवस्था हैं ये