Chapter 2 : Sadhana Pada
|| 2.42 ||

संतोषादनुत्तमसुखलाभः


पदच्छेद: संतोषात् , अनुत्तम , सुख , लाभः ॥


शब्दार्थ / Word Meaning

Hindi

  • ● संतोषात् - संतोष (से)
  • ● अनुत्तम - परम
  • ● सुख - सुख
  • ● लाभः - प्राप्त (होता है)।

English

  • ● santosha - contentment
  • ● anuttamah - supreme
  • ● sukha - happiness
  • ● labhah - gained.

सूत्रार्थ / Sutra Meaning

Hindi: संतोष से परम सुख प्राप्त होता है ।

Sanskrit: 

English: From contentment, supreme happiness is gained.

French: 

German: Aus Zufriedenheit geht unvergleichliches Glück hervor.

Audio

Yog Sutra 2.42
Explanation 2.42
Requested file could not be found (error code 404). Verify the file URL specified in the shortcode.

Explanation/Sutr Vyakhya

  • Hindi
  • English
  • Sanskrit
  • French
  • German
  • Yog Kavya

अब दूसरे नियम संतोष के फल के बारे में महर्षि बताते हैं । संतोष की प्राप्ति होने से योगी को उत्तम सुखों की प्राप्ति होती है । जो संतोषी नहीं होते हैं वे और-और चाहिए इस प्रकार छोटे-छोटे सुखो के पीछे भागते हैं । इस प्रकार भागते भागते उन्हें कभी भी स्थायी सुख की प्राप्ति नहीं होती है । भागते रहने से भोग के प्रति उनकी आसक्ति बढ़ती ही जाती है और ऐसे लोग आत्म-साक्षात्कार की योग्यता खो देते हैं ।

 

निरंतर असंतोष में जीने से उनके जीवन में एक खालीपन बना रहता है जिसके कारण वे सदैव परेशानी और तनाव में रहते हैं । लेकिन जो अपने हिस्से का पूर्ण पुरुषार्थ करते हुए, अपने कर्मों के फल को प्रसाद स्वरुप समझकर संतुष्ट रहते हैं, वे ही वस्तुतः सुखी रहते हैं । वे संतोष की प्रक्रिया के पालन में भी  सुखी रहते हैं और जब संतोष उनके जीवन का हिस्सा बन जाता है तब संतोष के फल के रूप में उन्हें उत्तम सुखों का सानिध्य प्राप्त होता है ।

 

क्यों संतोष को सबसे बड़ा सुख कहा जाता है ? – सभी भौतिक सुख भोगने के बाद समाप्त हो जाते हैं और फिर परिणाम में दुखदायी ही सिद्ध होते हैं, लेकिन संतोष रूपी सुख अनंत होता है ।संतोष आपको आपकी स्थिति से हिलाता नहीं है अपितु शांत स्थिति में पहुंचाता है ।

 

वहीँ संतोष किसी अकर्मण्यता का नाम नहीं है । संतोष का अर्थ है, उपलब्ध सामर्थ्य का पूर्ण उपयोग करना और बिना फल की इच्छा किये फिर फल स्वरुप जो कुछ प्राप्त हो उसे सम्पूर्ण मन से स्वीकार करना । जब हम अपना सम्पूर्ण सामर्थ्य लगाते हैं तो फल की इच्छा तो करते हैं लेकिन उसका मूल्यांकन हमें अपने हिसाब से नहीं करना चाहिए, इसी को फल की इच्छा न करना कहते हैं । पुरुषार्थ हम कितना भी अधिक बढाकर कर सकते हैं लेकिन फल के लिए हम अपनी इच्छा को कम या अधिक नहीं कर सकते हैं, क्योंकि फल के विषय में हम अधिकारी नहीं हैं । यही दृष्टि रखना संतोष की दृष्टि रखना कहलाता है ।

 

वस्तुतः सभी सुखों का आधार संतोष ही है ।

coming soon..
coming soon..
coming soon..
coming soon..

सूत्र: संतोषादनुत्तमसुखलाभः

 

दूसरा नियम सुनो संतोष है

जी जीवन धन से भरा कोष है

जिसने संतोष धन का चयन किया

अनुष्ठान इसका मन ही मन किया

सब सुख झोली में उसके गिर जाते हैं

बुरे दिन साधक के फिर जाते हैं

शाश्वत आंनद की बूंदे हैं झरती

सब ताप त्रय योगी की हरती

प्रसन्न वदन-अभिनंदित जीवन

योगी को मिल जाता अतुलित धन

तृष्णा से रहित जीवन हो जाता

हल्का फुल्का तन-मन हो जाता

One thought on “2.42”

  1. jagdish pasad arya says:

    very useful text

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *