जैसे ही योगी को विवेक ख्याति की प्राप्ति होती है अर्थात दृढ, स्थायी और अखंडित ज्ञान की स्थिति प्राप्त होती है तब उसकी बुद्धि में विशेष प्रज्ञा का अवतरण होता है । उसकी बुद्धि सामान्य से विशेष हो जाती है । पूर्व में जो बुद्धि भोग की ओर लगाती थी, अज्ञान की ओर लगाती थी अब वह सत्य ज्ञान की ओर ही पुरुष को लेकर जाती है ।
समाधि पाद में इसे ऋतंभरा प्रज्ञा के नाम से महर्षि ने बताया है । इस प्रकार प्रज्ञा के सात स्तर योगी को प्राप्त हो जाते हैं ।
आईये बुद्धि के वे सात स्तर क्या हैं, उन्हें समझते हैं-
मुक्ति पाने के लिए जो कुछ त्यागने योग्य था वह त्यागा जा चुका है और अब त्यागने के लिए कुछ भी शेष नहीं है । मुक्ति के लिए जानने योग्य सब कुछ जाना जा चुका है अतः अब इससे अतिरिक्त जानना शेष नहीं है । यह पहली बुद्धि बनती है ।
छोड़ने योग्य जितने भी क्लेश थे, वे सभी पूर्ण रूप से क्षीण हो चुके हैं और इससे अधिक क्लेश क्षीण नहीं किये जा सकते हैं क्योंकि अब ये दग्ध्बीज हो चुके हैं । यह दूसरी प्रकार की बुद्धि है ।
निरोध रूपी समाधि के द्वारा जो हान की स्थिति मुझे प्राप्त करनी थी, उसे मैंने प्राप्त क्र लिया है अतः जो कुछ पाने योग्य था वह मुझे प्राप्त हो चुका है । इस प्रकार पाने की चाहना का अंत हो जाता है, यह तीसरी प्रकार की बुद्धि का स्तर है ।
हान के उपाय स्वरुप जो विवेक ख्याति की स्थिति वह मुझे प्राप्त हो चुकी है, ऐसा दृढ बुद्धि हो जाती है । यह बुद्धि का चतुर्थ स्तर है ।
बुद्धि ने अपनी अंतिम स्थिति को पा लिया है और इसके अतिरिक्त बुद्धि का कोई भी कार्य शेष नहीं रह जाता है इस प्रकार की अनुभूति बुद्धि का पांचवा स्तर है ।
चित्त में से तीन गुण सदा के लिए अपने कारण में लीन हो गये हैं और अब इनकी पुनः उत्पत्ति संभव नहीं है ऐसा ज्ञान उदित कराने वाली बुद्धि की छठी स्थिति है । जैसे पर्वत की ऊँची श्रृंखला से लुढकता हुआ पत्थर सीधे नीचे खाई में जाने को उद्यत होता है और पुनः शिखर पर नहीं चढ़ सकता है, उसी प्रकार सत्व आदि तीन गुण वहीँ लीन हो जाते हैं जहाँ से वे आये हुए होते हैं और फिर कभी ऐसे योगी के चित्त में प्रविष्ट नहीं होते हैं । गुणातीत होने के इस अनुभूति को बुद्धि का छठा स्तर कहते हैं ।
आत्मा त्रिगुणातीत होकर स्वयं के सच्चे स्वरुप, अकम्पित स्वरुप को प्राप्त होकर आत्मस्थ हो जाती है । तब निर्मल और गुणातीत आत्मा केवल अपने शुद्ध-बुद्ध एवं मुक्त स्वरुप में भासित होती है । यह अंतिम और सबसे उत्कृष्ट बुद्धि का सांतवा स्तर है
इस प्रकार योगी की प्रज्ञा जब सात स्तरों के अनुभव वाली हो जाती है और आत्मा गुणों के सम्बन्ध से रहित हुआ, अपने शुद्ध स्वरुप में भासित होने लगता है तो आत्मा को कुशल ने नाम से कहा जाता है । क्योंकि कुशलता पूर्वक जिसने अपने सच्चे स्वरुप में स्थिति पा ली हो उसे ही कुशल कहा जाता है ।
सूत्र: तस्य सप्तधा प्रान्तभूमिः प्रज्ञा
सात स्तरों में समाहित बुद्धि
विवेक ख्याति रूप जब मिलती शुद्धि
सात तलों तक बुद्धि विस्तार है
ऋतंभरा प्रज्ञा सबका सार है
प्रज्ञा के इन सात तलों में
छुपा है जीवन अभी इन्हीं पलों में