हमारे इस शरीर में दो प्रकार की शक्ति हैं।
एक है दृक् शक्ति अर्थात देखने वाला पुरुष और दूसरी शक्ति है दर्शन शक्ति अर्थात देखने की साधन स्वरूपा बुद्धि। जब इन दोनों शक्तियों के बीच भेद ज्ञान को न देखकर दोनों के एकरूप ज्ञान को अस्मिता नामक क्लेश कहते हैं।
दो विपरीत तत्त्वों के गुण,स्वभाव एवं स्वरूप में अत्यंत भेद होना स्वाभाविक है लेकिन अविद्या के कारण जब चेतन और जड़ पदार्थों के बीच के भेद को न समझकर उनमें एकरूपता का भान रखते हैं तो इसे अस्मिता क्लेश कहा जाता है। अज्ञान के कारण यह इतना मिला जुला रूप व्यक्ति को दिखता है कि बिना योगस्थ हुए इनके परस्पर भेद को देखना असंभव है। इसे ही ईश्वर की माया शक्ति कहा जाता है।
पुरुष चेतन तत्त्व है वहीं बुद्धि जड़ है और प्रकृति का प्रथम विकार है। पुरुष अपरिणामी है वहीं बुद्धि परिणामिनी है। पुरुष देखने की शक्ति है लेकिन बुद्धि दिखाने वाली साधन मात्र है।
अष्टांग योग एवं क्रियायोग की साधना के अभाव में व्यक्ति माया के वशीभूत हुआ इस बुद्धिग्राह्य भेद को भी न पहचानकर दोनों को एक जैसा समझ लेता है और फिर दुखों को पाता, क्लेश के संस्कार जमा करता जाता है
पुरुष शक्ति और दर्शन शक्ति (बुद्धि) के स्वरूप को अलग अलग न जानकर इन्हें एक ही समझना यह मानव जाति की सबसे बड़ी और आखिरी गलतफहमी है। जो मनुष्य योग साधना से इनके अलग अलग स्वरूप को ठीक ठीक से जान लेता है उसे ही सच्चा ज्ञान प्राप्त होता है अन्यों को नहीं।
इस प्रकार हमने जाना कि अस्मिता नामक क्लेश क्या है। इन सभी क्लेशों को हम क्रिया योग (तप, स्वाध्याय एवं ईश्वर प्रणिधान) द्वारा क्षीण कर सकते हैं और फिर अष्टांग योग एवं आगे असम्प्रज्ञात समाधि द्वारा दग्धबीज करके कृतकृत्य हो सकते हैं।
सूत्र: दृग्दर्शनशक्त्योरेकात्मतेवास्मिता
अविद्या का प्रथम उत्पाद अस्मिता
आत्मा -बुद्धि का एकात्म अस्मिता
जबकि आत्मा अलग और बुद्धि भिन्न है
जब दोनो का ज्ञान होता अभिन्न है
यही दुखों का कारण महान है
योग की भाषा में यही हान है