अब महर्षि ब्रह्मचर्य के व्रत का फल बता रहे हैं । जैसा कि पूर्व के सूत्रों में भी हमने बताया कि ब्रह्मचर्य का शाब्दिक अर्थ है ब्रह्म जैसी चर्या का पालन करना । ब्रह्मचर्य का यह एक व्यापक अर्थ है । स्थूल अर्थ है जो हमारी जीवनी शक्ति वीर्य है, उसका संरक्षण करना । ब्रह्मचर्य पालन के फलस्वरूप योगी को अप्रतिम उत्साह की प्राप्ति होती है । उसके जीवन में प्रतिक्षण एक नूतन और पहले से बढ़ा हुआ उत्साह रहता है ।
वर्णाश्रम के विभाग के अनुसार ब्रह्मचर्य की व्याख्या भी थोडा सा परिवर्तित होती है । २५ वर्ष तक का आश्रम तो ब्रह्मचर्य पालन का ही काल होता है, लेकिन २५ से ५० वर्ष तक का गृहस्थ आश्रम, केवल संतान उत्पत्ति के लिए वीर्य या रज के उपयोग की आज्ञा देता है । तीसरे एवं चौथे आश्रम अर्थात वानप्रस्थ एवं सन्यास आश्रम में पुनः पूर्ण रूप से ब्रह्मचर्य पालन का विधान है ।
गृहस्थ आश्रम में संतान उत्पत्ति या वंश वृद्धि के लिए जो सम्बन्ध निर्मित होते हैं वे किसी प्रयोजन को सिद्ध करने के कारण सार्थक हो जाते हैं और इस प्रकार अब्रह्मचर्य के अंतर्गत नहीं आते हैं । लेकिन इसके विपरीत जब भी अब्रह्मचर्य में कोई बरतता है तो वह निंदनीय हो जाता है, केवल क्षणिक सुखभोग का साधन बन जाता है और शक्ति का अपव्यय माना जाता है ।
वीर्य या रज की सार्थकता दो प्रकार से ही संभव है –
१.संतान या वंशवृद्धि करने में
२.व्यक्ति के भीतर रहकर उसके व्यक्तित्व को निखारने में
यदि संतान उत्पत्ति के अतरिक्त वीर्य या रज शरीर से बाहर निकलता है तो जीवनी शक्ति का अनादर है । भगवान द्वारा प्रदत्त उसकी शक्ति का घोर अपमान है । योगी इस बात को ठीक प्रकार से समझ लेता है और पहले स्थूल रूप से इसके संरक्षण पर ध्यान देता है और फिर इसे साधता हुआ अपनी दिनचर्या और जीवन चर्या को ब्रह्म जैसी करने में लग जाता है ।
योगी सोचता है कि-
१.मैं ऐसे जियूं जैसे ब्रह्म जीता है ।
२.मेरे माध्यम से ब्रह्म ही जी रहे हैं ।
३.यदि ब्रह्म मेरे शरीर, मन का आश्रय लेकर जीते तो कैसे जीते? मुझे उसी प्रकार से जीना है ।
४.मुझे कोई भी ऐसा कृत्य नहीं करना है जिससे मेरा ईश्वर
इस प्रकार के विचार इसे निरंतर ब्रह्मचर्य में लागए रखते हैं और फलस्वरूप वह सदा उत्साही बना रहता है । उसे किसी भी प्रकार से ग्लानि, हीनता नहीं सताती है । सदैव सकारात्मकता उसकी अनुगामी होती है । इस प्रकार उत्साही और सकारात्मक बनकर वह योग मार्ग में आने वाले सभी बाधाओं को आसानी से पार करने में सक्षम हो जाता है । जीवन में आने वाले विघ्नों को भी आसानी से पार कर लेता है ।
जहाँ एक ओर ब्रह्मचर्य के पालन में उसे अतिशय आनंद की प्राप्ति होती है वहीँ शारीरिक एवं मानसिक रूप से वह सशक्त होता जाता है । वीर्य के व्यय में जो निरुत्साह मिलता है, उसके संरक्षण में उतना ही उत्साह बढ़ता जाता है ।
सीधी सी बात है कि जब कोई वीर्य का नाश करता है तो परिणाम में उसे ग्लानि, और उत्साह की कमी महसूस होती है, यह सभी का अनुभव है । अतः जब मन, वचन और कर्म से वीर्य का संरक्षण किया जायेगा तो इसके स्थान पर आत्मविश्वास एवं उत्साह की वृद्धि स्वाभाविक है | जैसे- जैसे ब्रह्मचर्य का अनुष्ठान आगे बढ़ता जायेगा वैसे वैसे साधक के जीवन में उत्साह भी बढ़ता जायेगा । जब जीवन में भरी उत्साह होगा तो स्वतः ही उसकी आयु भी बढ़ती चली जाएगी, योगी दीर्घायु हो जाता है ।
सूत्र: ब्रह्मचर्यप्रतिष्ठायां वीर्यलाभः
ब्रह्मचर्य तो जीवन की धुरी है
बिन इसके यात्रा अधूरी है
बूंद-बूंद जब संचित होता
योगी भाव सहित संजोता
अतुलित बल-संबल है पाता
जब ब्रह्मचर्य को अमल में लाता
बुद्धि बल की तेज धार से
सब दोषों को एक ही वार से
अवसान उनका वह कर देता है
स्वयं को जीवन रस से भर लेता है
ब्रह्मचर्य की रक्षा से बनता है जो ऊर्ध्वरेता
वही है सच्चा योगी-वही है सच्चा विजेता
I just like the helpful information you provide on your
articles. I’ll bookmark your blog and test once more right here regularly.
I am moderately certain I will learn plenty of new stuff right right here!
Best of luck for the following!
Very useful and abidable knowledge on Brahmcharya🙏
मेरा प्रणाम🙏
आपको भी बहुत बहुत प्रणाम मोनी दास जी