इससे पूर्व सूत्र में अविद्या की छोटी सी परिभाषा दी थी कि वह सभी क्लेशों की जननी है, प्रभव या प्रसव भूमि है। अब प्रस्तुत सूत्र में अविद्या के स्वरूप के बारे में बता रहे हैं।
अनित्य पदार्थों में नित्यता देखना,अशुद्ध पदार्थों में शुद्धता देखना, दुःख को सुख समझना और जड़ पदार्थों को चेतन जानना यही अविद्या का प्रमुख लक्षण है।
कैसे हम अनित्य में नित्य का दर्शन करते हैं?- यह प्रकृति त्रिगुणात्मक है। परिणामी है लेकिन चेतन तत्त्व से पृथक सभी प्राकृतिक तत्त्वों को सदा बने रहने वाला समझना अविद्या है। प्रकृति के जड़ पदार्थों से निर्मित इस मानव शरीर को भी नित्य समझना गहरी अविद्या है। यह शरीर सदा रहेगा इस प्रकार की बुद्धि रखने वाला घोर अविद्या में जी रहा है।
यदि कोई शरीर को अनित्य समझकर तदनुरूप भावनात्मक एवं क्रियात्मक आचरण नहीं करता है, वह तो अत्यंत घनघोर अविद्या रूपी क्लेश से ग्रसित है, ऐसा समझना चाहिए।
इस प्रकार जितने भी दैनिक जीवन में हम अनित्य पदार्थो से सम्बद्ध रहते हैं, उनके प्रति यदि नित्यता के भाव से व्यवहार करते हैं और समझते हैं कि ये व्यक्ति, स्थान, सम्बन्ध नित्य बने रहेंगे तो ऐसा समझना ही अविद्या है।
वस्तुतः सर्वप्रथम इस शरीर को नित्य मानना ही सब प्रकार के अविद्या के मूल में है। शरीर को नित्य मानकर जब हम व्यक्ति, वस्तु, स्थान और सम्बन्धो को नित्य मानकर व्यवहार करने लगते हैं तो पूरी तरह अविद्या से आविष्ट हो जाते हैं। तब बंधन और अधिक कठोर और दुखदायी होने लग जाता है।
इस प्रकार अनित्य में नित्य देखने से कैसे अविद्या मानी जाती है आप समझ सकते हैं। योग का प्रारंभ स्वयं अर्थात शरीर, मन, बुद्धि से होता हुआ आत्म तत्त्व तक जाता है। अतः शरीर,मन, बुद्धि के विकारों से ऊपर उठकर, देहाध्यास से ऊपर उठकर ही योग सिद्ध होता है। इसलिए अविद्या के जितने भी रूप हैं वे सबसे पहले साधक को अपने शरीर,मन एवं बुद्धि से जोड़कर देखने पड़ेंगे और उनसे निवृत होना पड़ेगा।
कुछ लोग शरीर को शुद्ध करने में अपने जीवन को लगा देते हैं और जीवन के बड़े लक्ष्य दुख निवृति की ओर ध्यान ही नहीं देते हैं। ऐसा नहीं है कि हमें अपने शरीर की शुद्धि के लिए कुछ भी प्रयत्न नहीं करना चाहिए। अष्टांग योग के आठ अंगों में नियम में शौच के ऊपर बात की गई है लेकिन वह शौच शरीर के बाहरी एवं भीतरी शुचिता के लिए कहा गया और वे भी उतना ही जितने में व्यवहार सिद्ध होता है। न कि शरीर की शुद्धि के लिए उसमें लिप्त होने के लिए कहा गया है।
अब अशुद्धि में शुद्धि देखने से कैसे अविद्या निर्मित होती उसे समझते हैं।
मानव शरीर को जैसे नित्य मानने से अविद्या क्लेश सिद्ध हो रहा था उसी प्रकार इस शरीर को शुद्ध मानना भी अविद्या है। शरीर की सुंदरता, यौवन आदि को देखकर, इसे शुद्ध और सुगंधित समझना अविद्या है।
शरीर तो स्वभाव से ही अशुद्ध है। इसे बार बार शुद्ध न किया जाए तो यह अशुद्धि का घर बन जायेगा। अशुध्द शरीर को नित्य और शुद्ध मानना भी अविद्या है।
अविद्या का तीसरा प्रमुख स्वरूप है- दुख को सुख समझना। संसार में जिसे लोग सुख समझते है वस्तुतः वह दुख ही है। इस प्रकार दुख को सुख समझना एक गहरी अविद्या है जिसके फेर में पूरी दुनिया घूम रही है। केवल योगी व्यक्ति ही आभासीय और सांसारिक सुखों में दुख दर्शन कर उनसे दूर होने का अभ्यास करता है।
यह संसार माया से बना है ऐसा सभी सामान्य रूप से कहते पाए जाते हैं लेकिन वह माया कैसे समझ में आये ये भी एक बहुत बड़ी माया है। अतः संसार में जिसे सुख माना जा रहा है वस्तुतः वह दुख ही है। जब तक एक साधक दुख और सुख दोनों प्रकार की अनुभूति से मुक्त नहीं होगा तब तक वह जीवन मुक्त नहीं हो सकता है।
योग के मार्ग पर यह सबसे बड़ी परीक्षा है साधक की।
किस प्रकार सुख को दुख समझें इसकी विस्तृत व्याख्या हम आगे के सूत्र संख्या 15 में करेंगे। वहां 4 प्रकार के दुखों के बारे में विस्तार से बताएंगे और साथ ही यह भी बताएंगे कि कैसे एक युञ्जन योगी को दुख समझना चाहिए और कैसे गृहस्थियों को दुख समझना चाहिए।
अविद्या के चौथे रूप में अनात्मा में आत्मा का दर्शन करना अविद्या है। जड़ पदार्थों में आत्मभाव रखना अविद्या है। मन, बुद्धि, शरीर को ही आत्मा मानकर चलना अविद्या है।
जड़ एवं चेतन तत्त्व का ठीक ठीक निर्धारण नहीं कर पाना अविद्या है। जब तक कोई साधक प्रकृति और पुरूष का समझ की दृष्टि से भेद ठीक से नहीं जान पाता है तो वह योग की अपनी यात्रा प्रारंभ नहीं कर सकता है। अनुभव और आचरण की दृष्टि से भेद को विवेकज्ञान प्राप्त होने पर ही हो पायेगा, उसी ज्ञान के लिए योग का सारा पुरुषार्थ है।
सूत्र: अनित्याशुचिदुःखानात्मसु नित्यशुचिसुखात्मख्यातिरविद्या
अविद्या का अब स्वरूप सुनो तुम
इसको जानो समझो और गुनो तुम
अनित्य में जो नित्य का भान कराए
गंदगी में सफाई का ज्ञान कराए
जो दुख के शाश्वत कारण हैं
उसमें यह लिए सुख का आवरण हैं
चेतना से रहित जो कुछ है
अविद्या के लिए वही सबकुछ है
आत्मा का भाव उसी में
सब दुखों का अभाव उसी में
Dear Sir, extremely well explined. Kudos for doing a wonderful job.
However with all this it appears that Yog is not for a family person where as it is also said that you can achieve the benefits of yog even as a family man.
Could you pl clarify.
Also Sir, I have a keen interest in understanding about Shavasana, Shirshasan and Yog Nidra.
May I request you to pl.guide me in this field of Patanjali yoga.
Warm regards
Well explained sir, kudos
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