प्रकृति और पुरुष के स्वरुप की अलग अलग चर्चा करने के बाद अब महर्षि इन दोनों के संयोग को परिभाषित कर रहे हैं । पूर्व में महर्षि द्वारा यह बताया गया था कि दृश्य और दृष्टा दोनों का जो अविवेक पूर्ण मिलन है वही सभी दुखों का मूल कारण है, लेकिन उस सूत्र के माध्यम से संयोग की असली परिभाषा कर रहे हैं ।
प्रकृत्ति एवं पुरुष (जीवात्मा) के स्वरुप कि प्राप्ति का कारण इन दोनों का संयोग ही है अर्थात यह संयोग ही है जो बुद्धि और आत्मा का अलग अलग ज्ञान कराने में सहायक होता है । जब तक प्रकृति और पुरुष के बीच संयोग नहीं होगा तब तक यह अवसर भी नहीं आ सकता कि कोई मनुष्य इस संयोग को जानकर स्वयं को और प्रकृति को जान सके । इस अर्थो में यह संयोग ही मूल कारण है ।
यहाँ स्व शब्द का अर्थ प्रकृति से है और स्वामी का यहाँ अर्थ जीवात्मा से है । यहाँ आत्मा को स्वामी शब्द से कहा गया है जिसका अर्थ होता है कि जीवात्मा स्व-शक्ति को नियंत्रित कर सकती है । इसलिए स्व-शक्ति का नियंत्रण पूर्वक उपयोग जीवन निर्वाह रूपी भोग का करते हुए मुक्ति की प्राप्ति के लिए करना चाहिए ।
सिद्धांत:
संयोग हुए बिना न तो प्रकृति को जानने का अवसर उत्पन्न हो सकता है और न ही पुरुष के स्वरुप को जानने का ।
प्रकृति और पुरुष का संयोग (परस्पर मिल जाना) ही सब प्रकार के दुखों का मूल कारण है ।
जीवन को यदि केवल दो शक्तियों के रूप में देखा जाए तो वह है स्व-शक्ति और स्वामी-शक्ति ।
सूत्र: स्वस्वामिशक्त्योः स्वरूपोपलब्धिहेतुः संयोगः
प्रकृति पुरुष का स्वरूप जो घुला मिला है
यही तो जन्म मरण का शाश्वत सिलसिला है
यह संयोग ही एक अवसर है
कि आत्मा शाश्वत और सब नश्वर है
भुक्ति मुक्ति का बोध कराकर
सब गुण मिल जायेंगे प्रकृति में जाकर
Very good explanation on this sutra 2.23.