प्रथम सूत्र में क्रियायोग की साधना त्रय पद्धति के बारे में बताने के बाद शिष्यों के मन की सहज जिज्ञासा का समाधान करते हुए महर्षि कहते हैं कि- क्रियायोग के निरंतर अभ्यास एवं वैराग्यपूर्ण अनुष्ठान से समाधि की भावना प्रबल होती है और साथ ही साथ में व्यक्ति के भीतर पञ्च क्लेशों का बल भी क्षीण होता चले जाता है।
पञ्च क्लेश कौन कौन से है एवं उनके अपने क्या क्या कार्य हैं यह सबकुछ आने वाले सूत्रों में महर्षि पृथक रूप से बताएंगे।
जब साधक क्रियायोग अर्थात तप, स्वाध्याय एवं ईश्वर प्रणिधान का निरंतर अनुष्ठान करता है तब उसके भीतर विवेकख्याति नाम की अग्नि उत्पन्न होने लगती है जो क्लेशों को दग्धबीज जैसी अवस्था में ले आती है। योग की भाषा में कहें तो प्रकृति और पुरुष के भेद को जनाने वाली सूक्ष्म बुद्धि प्रकृति में लीन हो जाती है।
क्रियायोग से कैसे क्लेश निर्बल हो जाते हैं- तप से साधक के शरीर के साथ साथ मन की अशुद्धि मिटने लगती है, वहीं स्वाध्याय से मन और हृदय की शुद्धि होने लग जाती है। ईश्वर प्रणिधान से समर्पण की भावना के अतिरेक होने से हृदय पूर्ण रूप से स्वच्छ एवं उदात्त हो जाता है। इस प्रकार क्रियायोग का अनुष्ठान साधक को पञ्च क्लेशों से रहित करता हुआ शुद्ध अंतःकरण प्रदान करता है । शुद्ध अंतःकरण से साधक की आगे की यात्रा और अधिक आनंददायक एवं गतिशील हो जाती है।
इन्द्रिय, मन, बुद्धि, हृदय की शुद्धता से ही योग का मार्ग आगे बढ़ता है। इसलिए प्रारंभ में ही क्रियायोग का अभ्यास आवश्यक है।
जब तप से द्वंद्व सहन करने की शक्ति आ जायेगी तब अविचलन की स्थिति में अधर्माचरण नहीं होगा। सत्य और असत्य का बोध ठीक प्रकार से हो पायेगा। मैं और मेरे रूपी अहंकार से साधक दूर होने लग जायेगा। राग, द्वेष और अभिनिवेश रूपी क्लेशों का बल भी कम होता चले जाएगा।
कायिक, मानसिक और वाचिक तप से, स्वाध्याय एवं ईश्वर प्रणिधान से जीवन के विभिन्न आयामों पर विस्तृत रूप से प्रभाव पड़ेगा और योगी निर्भार होता चला जायेगा।
अतः क्रियायोग के फलस्वरूप साधक के मन में समाधि के प्रति भावना प्रगाढ़ होती चली जायेगी और साथ ही जिन पञ्च क्लेशों से उसका जीवन नारकीय हुआ पड़ा है, उनके बंधनो से भी वह मुक्त होता चला जायेगा।
प्रत्येक व्रत एवं अनुष्ठान का निरंतर अभ्यास एवं वैराग्य पूर्वक निर्वहन करना ही, योग मार्ग में सफलता है अन्यथा बीच मंझधार की स्थिति बनी रहेगी।
सूत्र: समाधिभावनार्थः क्लेशतनूकरणार्थश्च
क्रियायोग की त्रिवेणी से
तप, स्वाध्याय और
ईश्वर प्रणिधान की श्रेणी से
अब क्रियायोग का फल बतलाते हैं
पञ्च क्लेशों को बलहीन बनाते हैं।
समाधि भावना बलवती हो जाती
सूक्ष्म बुद्धि एक नए ज्ञान को पाती
प्रकृति पुरुष के गहरे भेद को पाकर
स्वच्छ ज्ञान का पावन दीप जलाकर
योगी आत्मस्थ होने लगता है
सब क्लेशों को खोने लगता है
निर्विकार से निर्विचार की यात्रा में
सही अर्थों में स्वस्थ होने लगता है।