इस संसार में सबकुछ मिलकर बना है। संसार का व्यवहार विरोधी स्वभाव वाला है। यहां अच्छाई भी है और बुराई भी। यहां अच्छी प्रवृत्ति भी है और बुरी भी। यहां पुण्य करने के अवसर हैं तो पाप करने के अवसर भी।
संक्षेप में कहें तो यहां सबकुछ उपलब्ध है अब यह मनुष्य की प्रवृत्ति पर निर्भर है कि वह किसका चयन करता है, और परमात्मा ने मनुष्य को स्वतंत्र रूप से कर्ता बनाया है और उसे प्रत्येक स्थिति में चयन करने का अधिकार भी दिया है।
शास्त्र विधि पूर्वक चयन किस प्रकार करे यह भी दया उसने की है। वेद, उपनिषद, दर्शन और गीता, रामायण, महाभारत आदि अनेक सद्ग्रन्थों के माध्यम से सही और गलत के निर्धारण का अवसर भी दिया है लेकिन फिर भी उसे चयन का पूर्ण अधिकार दिया है।
जब चयन का पूर्ण अधिकार है तब यह निश्चित हो जाता है कि हम जो कुछ करते हैं वह नितांत रूप से स्वयं करते हैं क्योंकि तब हम जो कुछ करते हैं वह स्वयं चुनते हैं करने के लिए। यदि किसी दवाबवश हम कुछ करते हैं तो भी हम दवाब को चुनते हैं और कर्म करते हैं। अर्थात प्रत्येक स्थिति में हम ही चयनकर्ता होते हैं और कर्म के फल के अधिकारी होते हैं।
जब जाति, आयु, भोग ये तीनों सुख और दुख रूप में मनुष्य को फल देते हैं तो लोग सुख को सुख और दुख को दुख अनुभव करते हुए भोगते हैं। सुखी में सुखी तो दुख में दुखी होते रहते हैं और इस प्रकार उनके जीवन-चक्र का पहियां घूमता रहता है। लेकिन जैसा कि ऊपर कहा गया है, इस संसार में सबकुछ समाया हुआ है, तो योगी जन इस संसार का हिस्सा होते हुए भी पूर्व जन्म से प्राप्त सुख दुख रूपी समस्त कर्मफलों को दुख मानकर उदासीन रहता है। भोग चाहे सुख परोसे या फिर दुख, योगी के लिए सबकुछ दुख स्वरूप होकर त्याज्य ही है।
जब वह सुख को भी दुख समझता है तो वह दुखी नहीं होता अपितु सुख में सुख नहीं देखता है केवल उसके प्रति उदासीन बना रहता है। और जब दुख आता है तब भी उदासीन बना रहता है। इस प्रकार सुख और दुख दोनों से गुजर जाता है। कर्म भी अपना फल दे चुके होते हैं और योगी भी कर्मफल से मुक्त हो जाता है।
योगी सुख में भी दुख कैसे देखते हैं और क्यों देखते हैं- आएं इसके पीछे का सबसे बड़ा आध्यात्मिक विज्ञान समझते हैं।
दुख तो दुख स्वरूप है ही, यह सबको समझ में आता है। दुख के विषय में किसी को भी कोई समस्या नहीं है, लेकिन सुख रूपी जो भोग है वह किस प्रकार से दुख है और त्याज्य है इसको बहुत गहराई से समझना आवश्यक है।
योगमार्ग की साधना पर आगे बढ़ रहे साधकों के लिए यह सूत्र संजीवनी है। एक अकेला सूत्र उन्हें प्राणवायु से भर सकता है और प्रतिक्षण उनका मार्गदर्शक बन सकता है।
कोई भी सुख रूपी भोग चार प्रकार से अंततः दुखदायी सिद्ध हो जाता है।
योगी दूरदर्शी होते हैं वे बहुत पास का नहीं अपितु दूर की सोचकर आज वर्तमान को जीते हैं। तात्कालिक वासनाओं में फंसकर, थोड़े बहुत सुख लेकर वे दीर्घकालिक बड़ी हानि नहीं होने देते। यही एक बहुत बड़ा फर्क हो जाता है योगी में और एक सांसारिक व्यक्ति में।
योगी के सम्मुख जब पूर्व जन्म के पुण्य कर्मों के कारण कोई सुख भोग के लिए आता है तब वे यह सोचकर कि भले ही तात्कालिक रूप से मुझे ये सुख का आभास कराएगा लेकिम परिणाम में (अंत में) दुख ही देगा। सुख का यह स्वभाव है कि भोगने के बाद आपको दुख देगा ही देगा। ऐसा सोचकर और ठीक ठीक मानकर योगी सुख में भी दुख दर्शन कर सुख से भी उदासीन या निवृत्त हो जाता है।
सुख परिणाम में तो दुखदायी होता ही है लेकिन यदि सुख भोग करते समय कोई बाधा उत्पन्न हो जाये तो उन कारणों के प्रति द्वेष भाव जन्म ले लेगा। जब सुख नहीं भोग पाएंगे तो उन कारणों को हटाने के प्रयत्न में असफल होने पर क्रोध भी आ जायेगा। इस प्रकार द्वेष, क्रोध आपको दुखी कर देगा।
यदि सुख भोग में कोई बाधा न भी आये तब जो भोगते समय भोग का संस्कार बन रहा है वह बाद में पुनः भोग करने के लिए स्मृति को उत्पन्न करके द्वंद्व में डालेगा।
बार बार पूर्व में भोगे गए सुख की स्मृति से तुम्हें भोग की ओर दौड़ायेगा। स्थिति यह कर देगा, यदि भोग सम्मुख न भी हो तो स्वयं से उत्पन्न कर भोगने के लिए विवश करेगा। ऐसी स्थिति में व्यक्ति गलत ढंग से भोग करेगा।
काम, क्रोध लोभ और मोह पूर्वक सुख भोगने का प्रयत्न करेगा और फिर गहरे में फंसता चला जायेगा। जब सबकुछ खत्म हो चुका होगा जीवन का रस तब बैठकर पछतायेगा।
योगी इसी दुर्दशा को पहले से ही समझकर सुख में दुख का दर्शन करके मुक्त हो जाता है।
यदि परिणाम, ताप और संस्कार से भी कोई न समझें कि सुख में दुख छिपा है तो तब महर्षि कहते हैं कि-
त्रिगुणों का परस्पर विरोधी स्वभाव आपको बार बार दुख में लेकर जाएगा। क्योंकि ते तीन गुण सदा चलायमान होते हैं और एक स्थिति में अधिक देर तक स्थिर नहीं रहते हैं। कभी सत्त्व ऊपर कार्यरूप में होगा तो रजस और तमस नीचे दबे रहेंगे। फिर रजस ऊपर आएगा तब सत्त्व और तमस नीचे दब जाएंगे। फिर तमस जब ऊपर आएगा तो रजस और सत्त्व दब जाएंगे।
सत्त्व का फल सुख तो रजस का फल दुख कहा गया है। वहीं तमस का फल मोह बताया गया है। जब सत्त्व में सदैव स्थिति नहीं होगी तो दुख और मोह से युक्त जीवन होगा। इस प्रकार शाश्वत सुख कभी नहीं मिलेगा।
इस प्रकार विवेकवान की दृष्टि में कहीं कोई शाश्वत सुख नहीं होने से सुख भी दुख ही है या सबकुछ दुख ही है।
और दुख से प्रत्येक व्यक्ति छूटना चाहता है। योग की साधना, दुख से छूटकर शाश्वत आंनद (सुख और दुख से पार की स्थिति) प्राप्त करने के लिए है।
सूत्र: परिणामतापसंस्कारदुःखैर्गुणवृत्तिविरोधाच्च दुःखमेव सर्वं विवेकिनः
विवेकी लोग कौन हैं होते?
जो सुख दुख में मौन हैं होते?
तीन गुणों के स्वभाव जानते
उनका परस्पर विपरीत स्वभाव पहचानते
हर भोग का परिणाम भी दुख है
भोग में आती बाधाएं भी दुख हैं
जो स्मृति संस्कार सबके सम्मुख हैं
गुणों का परस्पर व्यवहार भी दुख हैं
सुख दुख के पार हुआ
योगी परमात्मा के द्वार हुआ
आशा रहित हो जाते हैं
ज्ञान विज्ञान के सहित हो जाते हैं
beautiful discription