सूत्र संख्या 17 में दृष्टा और दृश्य ये दो शब्द आये थे। उसमें से दृश्य शब्द को विस्तृत रूप से समझाने के बाद अब महर्षि दृष्टा के विषय में बता रहे हैं।
पहले भी सरल शब्दों में बताया है कि- सभी जड़ पदार्थों (प्रकृति-मन बुद्धि, चित्त, अहंकार, इन्द्रियाँ, आदि) को दृश्य के नाम से कहा जाता है और चेतन तत्त्व (आत्मा-जीवात्मा) को योग में दृष्टा के नाम से कहा गया है।
दृष्टा की परिभाषा करते हुए महर्षि कहते हैं कि दृष्टा अर्थात पुरूष (देखने वाला) केवल ज्ञान स्वरूप एवं शुद्ध होता हुआ भी चित्त में उठने वाली वृत्तियों के अनुरूप देखने वाला है।
अर्थात पुरुष या आत्मा, नित्य शुद्ध-बुद्ध एवं मुक्त होने के बाद भी चित्त में उठने वाले विचारों या वृत्तियों के अनुसार ही देखता है।
चित्त जैसा दिखायेगा वैसा ही आत्मा देखेगा। आत्मा स्वयं से देखने का चयन नहीं करती अपितु उसका चित्त जैसी जानकारी मन एवं इंद्रियों के संयोग से प्राप्त करेगा, वही आत्मा देखेगी।
इसीलिए कहा जाता है कि आत्मा के शुद्ध स्वरूप जो कि नित्य है, उसे पाने के लिए पहले चित्त, मन, बुद्धि एवं इंद्रियों की शुद्धि अत्यंत आवश्यक है। क्योंकि यदि ये अशुद्ध रहे तो आत्मा शुद्ध होने के बाद भी अशुद्धि को ही ग्रहण करेगी।
सांख्य दर्शन सहित अनेकों ग्रंथो में यह बात कही गई है कि आत्मा तो निर्विकार है, शुद्ध है, लेकिन दूषित चित्त ही आत्मा को अशुद्धि के साथ जोड़ता है।
आत्मा के अतिरिक्त इस देह में जो कुछ है वह उसके साधन स्वरूप है, उपकरण हैं। इसलिए नौकर जो कुछ दिखाएंगे वही आत्मा तक पहुचेगा।
इस पूरी प्रक्रिया में आत्मा मन, बुद्धि, चित्त अहंकार की शुद्धि के लिए प्रेरणा कर सकता है।
सूत्र: द्रष्टा दृशिमात्रः शुद्धोऽपि प्रत्ययानुपश्यः
चेतन स्वरूप और निर्विकार है आत्मा
नित्य शुद्ध,बुद्ध, मुक्त निर्विचार है आत्मा
सब जड़ पदार्थों का एक आधार है आत्मा
सबका प्रकाशक और शरीर के पार है आत्मा
बुद्धि एक उपकरण कहाती
आत्मा को सबकुछ जनाती
इतनी स्पष्टता से पातंजलि योगसूत्र की व्याख्या कहीं नहीं मिलती है।