आसन अष्टांग योग की साधना में एक महत्त्वपूर्ण अंग है । यह एक ऐसी कड़ी है जो आगे के अंगो में पूरी तरह अनुगत रहती है । आसन से ही क्रियात्मक योग प्रारंभ होता है । प्राणायाम, धारणा, ध्यान और समाधि में भी आसन पूरी तरह अनुगत रहता है ।
आसन की परिभाषा करते हुए महर्षि कहते हैं कि शरीर की वह स्थिति जिसमें साधक बिना हिले डुले सुख एवं स्थिरता पूर्वक रह सके, आसन कहलाती है । योग मार्ग पर चलने में बहुत सारा विचलन उपस्थित होता रहता है इसलिए स्थिरता की आवश्यकता बनी रहती है । शरीर और मन में यह स्थिरता आसन की सिद्धि से आती है ।
आसन के कितने प्रकार हैं, इस विषय में महर्षि ने कोई स्पष्ट निर्देश नहीं किया है । उनकी परिभाषा से लगता है कि कोई भी स्थिति जिसमें आप अधिक देर तक बिना हिले डुले सुख पूर्वक बैठ सकते हैं वे सभी आसन है । सामान्य रूप से यह कहा जाता है कि, इस धरती पर जितने जीव हैं उनके बैठने या लेटने के आधार पर उतने ही आसन हैं ।
अगले सूत्र में महर्षि बताएँगे कि आसन कैसे सिद्ध होते हैं ।
सूत्र: स्थिरसुखम् आसनम्
जिसमें स्थिरता एवं सुख मिलता है
सहज भाव से अपने सम्मुख मिलता है
स्थिति विशेष वह आसन कहलाती
द्वन्दों के घावों को निश्चित सहलाती
आसनों की यह मूल परिभाषा
आसन सिद्धि की रखो अभिलाषा
आसन सधेगा तो ध्यान लगेगा
प्राणायाम का भी अनुष्ठान टिकेगा
अपार धैर्य की क्षमता जागेगी
विदेह बनोगे, देह की ममता भागेगी
जिज्ञासा:- स्वामी जी महर्षि पतंजलि जी ने आसान की बात कही लेकिन आसनो के नाम का जिक्र नही किया ऐसा क्यों…?
कृपया समाधान करने कि कृपा करें
पूज्य स्वामी जी का उत्तर:
आसनों के साथ साथ ध्यान की बात भी कही लेकिन ध्यान के प्रकार की बात नहीं की।
ध्यान की बात करते हुए उन्होंने सूत्र रूप में कहा ” यथाभिमत ध्यानद्वा” अर्थात जैसे जिसके अभिमत से ध्यान लगता हो चाहे सविचार हो या निर्विचार वो स्वीकार्य है। मुख्य बात है ध्यान से वृत्ति निरोध की प्राप्ति, लेकिन वह जो भी विधि हो ध्यान की वह सर्वथा अक्लिष्ट वृत्ति ही उत्पन्न करे।
आसनों की भी कोई बात नहीं की क्योंकि आसन की परिभाषा करते हुए कहा-” जिस भी स्थिति में सुखपूर्वक अधिक देर तक स्थिरता के साथ रहा जाय वह आसन है।”
आसन योग के क्रम में बैठने की एक स्थिति का नाम है, यदि कोई सुखपूर्वक, स्थिरतापूर्वक और लंबे काल तक किसी एक निश्चित स्थिति में नहीं बैठ पायेगा तो वह अधिक देर तक ध्यान नहीं लगा सकता, जिससे साधनाकाल की समाधि उपलब्ध नहीं हो सकती है।
इसलिए जैसे योग के अन्य अंग महत्वपूर्ण हैं वैसे ही आसन भी उतना ही महत्वपूर्ण है या यूं कहें की कुछ अधिक महत्वपूर्ण है।
देश,काल, परिस्थिति, आयु, स्वभाव, प्रकृति के अनुसार आसन कई बार विविध हो सकते हैं इसलिए केवल परिभाषा करके छोड़ दिया गया। यदि कोई एक आसन निश्चित कर देते तो हो सकता था कि फिर वही प्रचलन में आ जाता इसलिए भी इसे खुला रखा गया ऐसा प्रतीत होता है जो कि न्यायोचित भी है।
महर्षि पतंजलि ने जहां आवश्यक लगा वहां उन्होंने परिभाषाओं को निश्चित कर दिया कि यह ऐसे ही होगा, वृत्ति निरोध अभ्यास और वैराग्य से ही होगा और फिर उनकी भी निश्चित परिभाषा कर दी।
स्वामी विदेह देव
Patanjali Yoga Sutra encompasses every philosophy of Dharma. It’s a like thread of garland through which one can make garland of flowers of his choice.