प्रस्तुत सूत्र में महर्षि पुनः एक बार प्रकृति के प्रयोजन के बारे में बता रहे हैं । दृश्य अर्थात प्रकृति का जो कुछ भी स्वरुप है वह आत्मा के को भोग एवं भोगों से निवृत्ति ( मुक्ति-मोक्ष या कैवल्य) दिलाने के लिए है । इस बात महर्षि ने दो बार कहा है इसका अर्थ यह है कि महर्षि इस बात को जोर देकर कहना चाहते हैं । पतंजलि योग सूत्र जैसे गहन शास्त्र में कोई भी शब्द व्यर्थ नहीं है और इसे अत्यंत संक्षिप्त बनाया गया है जिससे केवल गूढ़ रूप में ही बात को कहा जाए ।
किसी भी शास्त्र को लिखने के पीछे ४ कारण होते हैं जिन्हें अनुबन्ध चतुष्टय कहते हैं ।
१. अधिकारी
२. विषय
३. प्रयोजन
४. सम्बन्ध
यदि एक बात को दुसरे प्रकार से पुनः कहा जा रहा है तो उसके पीछे कारण होता है कि इस बात को अच्छे से समझ लिया जाये ।
दृश्य का सम्पूर्ण स्वरुप या उसके सभी अंग पुरुष के प्रयोजन सिद्ध करने के लिए होते हैं, इसे बार बार दोहराने का इतना ही अर्थ है कि साधक प्रकृति को केवल दुःख का कारण न समझे या फिर इससे दूर भागकर न जाये अपितु इसे ही साधन बनाकर अपवर्ग-मुक्ति को प्राप्त करे । यह एक अत्यन्त सूक्ष्म सा इशारा महर्षि ने हम सबके लिए दिया है ।
पूर्व में भी हमने आपसे कहा था कि कांटे से ही काँटा निकाला जाता है और बाद में जिस कांटे से काँटा निकाला था उसे भी फेंक दिया जाता है । इसी उदहारण को जब आप अपने सम्मुख रखेंगे तब आपको योग के मार्ग का सही सही बोध होता रहेगा ।
मुख्य रूप से प्रकृत्ति का प्रयोजन पुरुष को अपवर्ग (मुक्ति या मोक्ष) दिलाना है, भोग मुख्य नहीं है अर्थात गौण है । जिस प्रकार यात्रा करते समय हम किसी वाहन का उपयोग गन्तव्य तक पहुँचने के लिए करते हैं उसी प्रकार मुक्ति रूपी गन्तव्य तक पहुँचने हेतु भोग यात्रा के बीच के सुख सविधाएं मात्र हैं । इन सुख सुविधाओं का यात्रा के सहज सम्पन्न होने के लिए उपयोग मात्र ही श्रेष्ठ दर्शन है । यदि कोई सुख सुविधाओं में ही फंसा रह जायेगा तो मंजिल प्राप्त होने पर भी वह साधन को नहीं छोड़ेगा और पुनः जन्म-जन्मान्तरों के फेर में पड़ता जायेगा और ऐसा होना सबसे बड़ा दुर्भाग्य है | ।
सिद्धांत:
प्रकृति का सम्पूर्ण उद्देश्य पुरुष को भुक्ति और मुक्ति दिलाने के लिए हुआ है ।
प्रकृत्ति स्वयं के लिए नहीं अपितु जीवात्मा के लिए उत्पन्न हुई है ।
प्रकृत्ति जड़ पदार्थ है और जड़ पदार्थ स्वयं के लिए उपयोगी न होकर चेतन तत्त्व के काम आते हैं ।
प्रकृत्ति संघात है अतः संघात सदैव परार्थ के लिए होता है । अर्थात जड़ पदार्थों का जो मिला जुला स्वरुप होता है वह किसी चेतन तत्त्व के भोग सिद्धि या उसके निःश्रेयस के लिए होता है ।
पुरुष अर्थात जीवात्मा प्रकृत्ति के सहयोग के बिना न तो भोग ही भोग सकता है और न ही भोगों से मुक्ति पा सकता है
सूत्र: तदर्थ एव दृश्यस्यात्मा
प्रकृति का सब प्रयोजन क्या है?
यह सब इतना आयोजन क्या है?
क्यों इतनी मारामारी है?
ऐसी भी क्या लाचारी है?
किसके लिए प्रकृति का तामझाम है सब?
जीवन में आराम है कब?
ये शरीर मन बुद्धि और अहंकार
सब के सब हैं प्रकृति के विकार
यह प्रकृति और इसमें जो कुछ है
आत्मा के लिए ही सबकुछ है
Explanation MP3 audio error
We are fixing it. Thank you for letting us know
Such fine translation. Not to point mistake but typing error of ma instead of na. Bhagkar na jai.
हमारा ध्यान आकृष्ट करने के लिए आपका धन्यवाद, हमने स्पेलिंग ठीक कर दी है