Chapter 2 : Sadhana Pada
|| 2.25 ||

तदभावात् संयोगाभावो हानं तद् दृशेः कैवल्यम्


पदच्छेद: तत् , अभावात् , संयोग: , अभाव: , हानम् , तत् , दृशेः , कैवल्यम् ॥


शब्दार्थ / Word Meaning

Hindi

  • तत् - उस (अविद्या के)
  • अभावत् - अभाव से
  • संयोग - संयोग का
  • अभावः - अभाव (हो जाता है, यही)
  • हानम् - हान (अज्ञान का परित्याग है, और)
  • तत् - वही
  • दृशे: - द्रष्टा (चेतन आत्मा का)
  • कैवल्यम् - 'कैवल्य' अर्थात् मोक्ष है ।

English

  • tad - it's
  • abhavat - absence
  • sanyog - union
  • abhavo - absence, disappearance
  • hanam - removal
  • tat - that
  • drisheh - of the knowner, seer
  • kaivalyam .- liberation.

सूत्रार्थ / Sutra Meaning

Hindi: उस अविद्या के अभाव से संयोग का अभाव हो जाता है, यही हान अज्ञान का परित्याग है और वही द्रष्टा चेतन आत्मा का 'कैवल्य' अर्थात् मोक्ष है ।

Sanskrit: 

English: : There being absence of that (ignorance) there is absence of union, which is the thing to be avoided, that is the state of liberation of the Seer.

French:  German: Wenn die Verwechslung zurückgeht, geht auch Samyoga ( die Anbindung des sehenden Selbst an das Objekt ) zurück. Dies bedeutet Freiheit von der Verwicklungsmöglichkeit für Drastā (das sehende Selbst ).

Audio

Yog Sutra 2.25
Explanation 2.25
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Explanation/Sutr Vyakhya

  • Hindi
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  • Sanskrit
  • French
  • German
  • Yog Kavya

प्रस्तुत सूत्र में महर्षि उपरोक्त संयोग के कारण अविद्या के अभाव से संयोग का अभाव हो जाना बता रहे हैं । इस प्रकार संयोग के अभाव होने की स्थिति को ही योग में हान कहा जाता है और इसे ही पुरुष का कैवल्य कहा जाता है ।

 

हम पिछले कुछ सूत्रों से दृष्टा, दृश्य एवं उनके अज्ञानपूर्ण संयोग के विषय को लगातार समझ रहे हैं और एक निश्चय पर पहुँच रहे हैं कि किस प्रकार यह संसार हमारे लिए दुखपूर्ण हो रहा है । अतः इस प्रस्तुत प्रसंग को आप भली-भांति समझने का प्रयत्न करें क्योंकि इसी से आपको दुःख एवं दुखों से पूर्ण निवृत्ति का मार्ग दिखाई देगा ।

 

“ पुरुष एक अलग चेतन अस्तित्त्व है और प्रकृति एक पृथक जड़ अस्तित्व है । मिथ्याज्ञान के कारण दोनों विपरीत स्वभाव का संयोग हो जाता है । इस संयोग के कारण जो नित्य शुद्ध-बुद्ध और मुक्त स्वभाव का आत्मा है वह चित्त में उठने वाली वृत्तियों के साथ एकाकार होकर सुख-दुःख अनुभव करने लग जाता है और साथ ही अहंकार के कारण स्वयं को कर्ता और भोक्ता मानने लग जाता है । क्रोध, लोभ, काम और मोह की लहरें मुझमें ही उठ रही हैं ऐसा दृढ़ता से मानने लग जाता है । यह सब कुछ विकार रहित आत्मा और विकारों से युक्त प्रकृति के संयोग से हो रहा है । यदि इस संयोग का उच्छेदन करना हो तो उसका एक ही उपाय है – यथार्त ज्ञान की प्राप्ति ।

 

यथार्त ज्ञान है

नित्य में नित्यता का ज्ञान  और अनित्य वस्तु में अनित्यता का ज्ञान

जो शुद्ध है उसे ही शुद्ध मानना और जो अशुद्ध है उसी में अशुद्धि मानना और जानना

संसार के समस्त कार्यों एवं वस्तुओं में सब ओर से दुःख ही देखना

जो आत्मवान है उसी में आत्मा मानना और अनात्म में आत्मा नहीं मानना

 

इस प्रकार यथार्त ज्ञान से पुरुष में विवेक ज्ञान उत्पन्न होकर अविद्या का नाश करेगा और प्रकृति के स्वरुप का भी अलग ज्ञान हो जायेगा और आत्मा के स्वरुप का भी अलग से ज्ञान हो जायेगा । जब जड़ और चेतन अपने अपने स्वरुप में अलग अलग दिखाई देंगे तो इसी अवस्था विशेष को कैवल्य, मुक्ति, या मोक्ष कहा गया है । यही आत्मा को पाने की दृष्टि से सर्वोच्च लक्ष्य है ।

 

पुरुष और प्रकृति के बीच का संयोग का जब अभाव हो जाता है तो इस स्थिति को ही के नाम से कहा गया है । दुखों से मुक्ति को ही हान कहा है ।

 

सिद्धांत:

 

जब तक जीवात्मा और  प्रकृति के बीच के संयोग का नाश नहीं हो जाता तब तक हान स्थिति की प्राप्ति नहीं हो सकती

दुखों से निवृत्ति विशेष स्थिति को “ हान” कहते हैं ।

हान ही पुरुष के लिए कैवल्य या मोक्ष है ।

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सूत्र: तदभावात् संयोगाभावो हानं तद् दृशेः कैवल्यम्

 

अविद्या जो संयोग का कारण है

जैसे ही साधना से होता निवारण है

अज्ञान का पर्दा हट जाता है

आत्मा स्वरूप में सिमट जाता है

इसी भाव को हान कहा है

जीवन का सच्चा भान कहा है

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