Chapter 2 : Sadhana Pada
|| 2.37 ||

अस्तेयप्रतिष्ठायां सर्वरत्नोपस्थानम्


पदच्छेद: अस्तेय , प्रतिष्ठायाम् , सर्व , रत्न , उपस्थानम् ॥


शब्दार्थ / Word Meaning

Hindi

  • अस्तेय - अस्तेय अर्थात् चोरी के अभाव (में)
  • प्रतिष्ठायाम् - दृढ़ स्थिति हो जाने पर (उस योगी के सामने)
  • सर्व - सब प्रकार के
  • रत्न - रत्न
  • उप-स्थानम् - प्रकट हो जाते हैं ।

English

  • asteya - non-stealing
  • pratishtha - firmly established
  • sarva - of all
  • ratna - jewels
  • upasthanam - appear.

सूत्रार्थ / Sutra Meaning

Hindi: अस्तेय अर्थात् चोरी के अभाव में दृढ़ स्थिति हो जाने पर उस योगी के सामने सब प्रकार के रत्न प्रकट हो जाते हैं ।

Sanskrit: 

English: On being firmly established in non-stealing all wealth comes to the Yogi.

French: 

German: Alle Kostbarkeiten werden dem zuteil, der in Asteya ( im Nicht-Stehlen ) verwurzelt ist.

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Yog Sutra 2.37
Explanation 2.37
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Explanation/Sutr Vyakhya

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  • Yog Kavya

अब महर्षि अस्तेय अर्थात चोरी न करने का सिद्धि रूप में फल बताते हैं । अस्तेय का अर्थ होता है किसी भी वस्तु, पदार्थ, स्थान, धन आदि को उसके स्वामी की आज्ञा के बिना लेना । इसमें चोरी, छीना-झपटी, लूट, डकैती सबकुछ आ जाती है । केवल क्रियात्मक रूप से ऐसा करना ही स्तेय नहीं है अपितु मन में इस प्रकार के विचार लाना भी स्तेय अर्थात चोरी करना है ।

 

क्रिया योग से जब योगी अपने क्लेशों को तनु कर लेता है और मन, वचन और कर्म से किसी भी प्रकार से चौर्य कर्म नहीं करता है तब उसे अस्तेय की सिद्धि हो जाती है और फलस्वरूप उसे  वह सबकुछ प्राप्त होने लगता है जो उसे आवश्यक होता है । उसके सम्मुख सब प्रकार का ऐश्वर्य-धन संपदा दास भाव से उपस्थित हो जाती है ।

 

महर्षि तो स्पष्ट ही कह रहे हैं कि ऐसे अस्तेय में प्रतिष्ठित योगी को सब प्रकार के उत्तम रत्नों ( धन, पद, प्रतिष्ठा) आदि की प्राप्ति हो जाती है ।

 

कैसे अस्तेय में प्रतिष्ठित होने से योगी को सब प्रकार के उतम पदार्थों की प्राप्ति होती है?- सर्वथा अचौर्य का भाव होना ही अस्तेय में प्रतिष्ठित होना है, अतः अचौर्य का भाव घटित होने पर कुछ विशेष गुण योगी में आ जाते हैं- जैसे

१.आवश्यकता से अधिक की इच्छा का न होना

२.लोभ क्षीण हो जाना

३.ईमानदारी

४.अन्यों के अभाव को अनुभव करना

इस प्रकार जब योगी अपनी कम से कम आवश्यकताओं के बीच अपना जीवन एवं साधना को आगे बढ़ाता है तो वह न तो मन से यह विचार करता है कि किसी दुसरे की वस्तु उसकी हो जाये और न ही चोरी जैसे कर्म ही वह करता है । वह तो केवल अपनी सीमित आवश्यकता की पूर्ति हेतु कर्मयोग का सहारा लेता है और पुरुषार्थ पूर्वक अर्जन कर लेता है । अतः उसके जीवन में न्यूनतम से न्यूनतम आवश्यकतायें होती हैं जिन्हें वह पुरुषार्थ से पूरा कर लेता है ।

 

अध्यात्म का यह नियम है कि- जो चाहता है उसे नहीं मिलता है और जो नहीं चाहता है उसे सबकुछ मिल जाता है । इस प्रकार जब योगी को अपने जीवन निर्वाह से अतिरिक्त कुछ भी इच्छित नहीं होता तब अस्तेय की सिद्धि स्वरुप उसे सबकुछ प्राप्त हो जाता है लेकिन तब वह उसका भी प्रयोग नहीं करता है । यदि वह योगी कर्मयोग के मार्ग पर आगे बढ़ जाता है तो फिर जो कुछ उसे प्राप्त होता जाता है वह सबकुछ स्वयं के लिए नहीं अपितु प्राणिमात्र के उत्कर्ष के लिए लगा देता है । ईश्वर का भी यह विधान है कि जो बाँट सकता है उसी को देता है ।

जिस योगी का मन, पाने की वासनाओं से रिक्त होता है उसी के पात्र में खाली जगह होती है, जिसे भरा जा सकता है ।

coming soon..
coming soon..
coming soon..
coming soon..

सूत्र: अस्तेयप्रतिष्ठायां सर्वरत्नोपस्थानम्

 

चोरी करने का भाव जो छूटा

उसने ही गाड़ा-पुरुषार्थ का खूंटा

जब स्तेय का पूर्ण त्याग किया

जीवन में पुरुषार्थ का याग किया

सब ऐश्वर्य खुद चरणों में आते

पर योगी कोनये सब कहाँ सुहाते

उत्तम पदार्थों के भोग का अवसर

हट जाते हैं मार के ठोकर

बस अस्तेय भाव में जीते हैं

संतोष रूपी अमृत रस पीते हैं

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