जिस भी विवेकज्ञान प्राप्त योगी पुरुष के लिए प्रकृत्ति अपवर्ग अर्थात मुक्ति रूपी प्रयोजन को सिद्ध कर देती है उसके लिए प्रकृत्ति और पुरुष का वियोग हो जाता है लेकिन जो अन्य अज्ञानी, अविवेकी सामान्य लोगों एवं योग मार्ग में आगे बढ़ने वाले जो साधक हैं, उनके लिए प्रकृत्ति नष्ट नहीं होती, उनके लिए तो वह बनी रहती है ।
प्रकृति किसी एक व्यक्ति विशेष के लिए नहीं बनी है वह तो मानव मात्र के भोग और मुक्ति के लिए बनी है अतः जो व्यक्ति अभी मुक्त नहीं हुए हैं और वे जो योग मार्ग पर आगे बढ़ रहे हैं, उन सबके लिए प्रकृत्ति अपने स्वरुप में बनी रहेगी । उनके सम्मुख नाना प्रकार के भोग उपस्थित करती रहेगी । जिनके पूर्व जन्म के कर्माशय बचे होंगे उन्हें उनके अनुसार जाति-आयु और भोग दिलाते रहेगी ।
उदाहरण- यदि कक्षा १० की परीक्षा में जो छात्र उत्तीर्ण हो जाता है उसके लिए वह कक्षा का अस्तित्व समाप्त हो जाता है । लेकिन किसी एक के उत्तीर्ण होने से अन्य जो (उत्तीर्ण नहीं हुए ) उनके लिए कक्षा १० पूर्ववत बनी रहेगी । वह चाहे तो कक्षा १० में बैठना छोड़ दे लेकिन जब भी पढाई पुनः प्रारम्भ करेगा तो कक्षा १० से ही शुरू होगी । उसके लिए सभी नियम क़ानून, व्यवस्थाएं पहले की जैसी बनी रहेंगी । लेकिन जिसने कक्षा १० उत्तीर्ण कर ली, उसके लिए उस कक्षा के नियम, व्यवस्थाएं आदि सबकुछ निरर्थक हो जाती हैं ।
इसी प्रकार से प्रकृति भी मुक्त पुरुष के लिए नष्ट हो जाती है लेकिन अन्यों के लिए पहले के जैसी बनी रहती है ।
सिद्धांत: प्रकृत्ति सबके भोग और अपवर्ग (मुक्ति) के लिए होती है, न कि किसी एक व्यक्ति विशेष के मोक्ष के लिए
एक व्यक्ति के मुक्त हो जाने से सबकी मुक्ति नहीं होती है ।
एक व्यक्ति के मोक्ष को प्राप्त कर लेने से प्रकृति अन्यों के लिए ( जो मुक्त नहीं हुए हैं या मुक्ति के लिए प्रयास कर रहे हैं ) समाप्त नहीं हो जाती है ।
स्पष्ट है कि एक व्यक्ति के मुक्त होने से सबकी मुक्ति नहीं होती है अतः जीवात्मा एक न होकर के अनेक हैं ।
सूत्र: कृतार्थं प्रति नष्टमप्यनष्टं तदन्यसाधारणत्वात्
भुक्ति मुक्ति ही प्रयोजन बड़े हैं
प्रकृति के ये दो आयोजन खड़े हैं
जो भी आत्मा मोक्ष को पाती
उसके लिए प्रकृति नष्ट हो जाती
लेकिन जो अभी भोग रहे हैं
मोक्ष को बचे अभी लोग रहे हैं
प्रकृति उनकी सहगामी है
मुक्ति अभी भी आगामी है