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अब महर्षि पञ्च नियमों में से पहले नियम शौच के पालन से क्या फल मिलता है, उसके बारे में बता रहे हैं । जैसे यम में अहिंसा सबसे पहले आती है उसी प्रकार नियमों में शौच सबसे पहले लिखा गया है ।
जब तक आत्मा का अधिष्ठान यह शरीर भीतर एवं बाहर से स्वच्छ नहीं होगा तब तक साधना की प्रक्रिया सही ढंग से प्रारम्भ नहीं हो पायेगी । अष्टांग योग के प्रयोग से पूर्व योगी क्रिया योग का अभ्यास करता है ताकि उसके पञ्च क्लेश तनु या निर्बल हो जाएँ और वह अष्टांग योग के द्वारा फिर पूर्ण रूप से अपने क्लेशों को दग्ध्बीज कर सके ।
आप जानते हैं कि, अविद्या सब क्लेशों की जननी है । अविद्या रूपी क्लेश को दूर करने के लिए नित्य पदार्थ में नित्य का दर्शन और शुद्ध पदार्थ में शुद्धता का दर्शन करना आवश्यक होता है । अतः जब तक हमें शुद्ध और अशुद्ध के बीच का भेद नहीं पता होगा हम अविद्या को पूर्ण रूप से नहीं हटा सकते हैं ।
हमारा यह शरीर हमसे सबसे अधिक पास में है और इसमें शुद्धि और अशुद्धि दोनों छुपी हुई है । इसलिए सबसे पहले शरीर की बाहर और भीतर की स्वच्छता को समझना बहुत जरुरी हो जाता है । शौच के स्वरुप को हम नियमों में समझ आयें है अभी समझते हैं कि यदि योगी शौच में पूर्ण रूप से प्रतिष्ठित हो जाता है तो फल में उसे क्या मिलता है ?
शरीर को नित्य स्नान से शुद्ध किया जाता है और इसे शरीर की बाह्य शुद्धि कहते हैं । आन्तरिक रूप से मन में कई प्रकार की मलिनता छुपी रहती है, सत्य आदि आचरण से उस मलिनता की सफाई , आन्तरिक शुद्धता कहते हैं ।
मन में काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या, द्वेष, चुगली करना, किसी की बुरे करना आदि अनेक प्रकार के मल चिपके रहते हैं, अतः इनका साधना के द्वारा, अच्छे विचारों के द्वारा सफाई करना ही आन्तरिक शुद्धि है । बुरे विचारों को प्रतिपक्ष भावना के द्वारा शुभ भावनाओं में परिवर्तित करना यह भी आन्तरिक शुद्धि है ।
इस प्रकार योगी जब भीतर और बाहर दोनों जगह से स्वच्छ हो जाता है तब वह स्वयं भी अपने शरीर के प्रति अनासक्त हो जाता है और दूसरों के शरीर के प्रति आकर्षण से हट जाता है । तात्पर्य यह है कि न तो उसका स्वयं का शरीर उसके लिए किसी प्रकार भोग की वस्तु बनता है और न ही किसी अन्य का ।
शरीर की बाह्य और आन्तरिक शुचिता करते करते वह शरीर के सत्य से अवगत हो जाता है, कि यह केवल एक साधन मात्र है, इसमें मन लगाने जैसा शाश्वत कुछ नहीं है । यदि स्वयं के शरीर या अन्यों के शरीर में किसी भी प्रकार से रस रखा तो यह बंधन का कारण बनेगा, नाना प्रकार के दुखों में लेकर जायेगा । इसके साथ ही सांसारिक प्रवृत्तियों में फंसकर रख देगा । शरीर की बाहर और भीतर की शुचिता से सारी काम-वासनाएं ख़त्म हो जाती हैं । फलस्वरूप योगी अनेक प्रकार से अपने क्लेशों से भी मुक्त होता जाता है ।
एक बात ध्यान देने योग्य अवश्य है कि – कोई भी यम-नियम हो, यदि योगी उसका पालन पूर्ण रूप से करने में सक्षम हो जाता है तो वह सभी यम-नियमों की पूर्ति में भी सहायक हो जाता है । सभी यम-नियम परस्पर इतने गुंथे हुए हैं कि एक में भी सिद्धि प्राप्त होती है तो वह सभी की पूर्ति में कहीं न कहीं सहायक बनने लग जाता है ।
सूत्र: शौचात् स्वाङ्गजुगुप्सा परैरसंसर्गः
यमों का ठीक से अभ्यास किया जब
मिली विभूतियां योगी को तब
नियमों का भी अनुष्ठान बड़ा है
जिनपर व्यक्तिगत जीवन का आधार खड़ा है
भीतर- बाहर से स्वच्छ जब हो
तन-मन अपने स्वस्थ तब हों
टीम-मन योगी जब अपना संवारें
अनासक्त हुआ वह पहुंचे किनारे
पर शरीर से भी रस खो देता है
बीज निर्लिप्तता का बो देता है