योगी के जीवन में अपरिग्रह के प्रतिष्ठित हो जाने पर उसे अपने पूर्व जन्म की, वर्तमान जन्म कि एवं आगे किस प्रकार जीवन अंगड़ाई ले सकता है इसकी पूरी जानकारी हो जाती है । साधना के पथ पर अष्टांग योग का अनुष्ठान करते करते योगी जब अनावश्यक वस्तुओं, विचारों, भावनाओं का परित्याग कर देता है तब इस स्थिति को अपरिग्रह कहते हैं । अपरिग्रह के सिद्ध होने पर उसे अपने भूतकाल एवं वर्तमान काल का ठीक ठीक बोध हो जाता है और साथ ही भविष्य में क्या हो सकता है इसका भी उसे अनुमान लग जाता है । यह सबकुछ अपरिग्रह में प्रतिष्ठित होने पर होता है ।
कैसे योगी को अपने पूर्व जन्म की सभी आवश्यक घटनाएँ पता चल जाती हैं? योगी के मन में जब अनावश्यक रूप से न तो विचारों को लेकर कोई संचय की वासना होती है और न ही वस्तुओं को लेकर तब उसके जीवन में एक सहज प्रवाह उदित होता है । उस सहज प्रवाह में किसी भी प्रकार की कोई बाधा नहीं होती है, होता है तो सिर्फ एक सहज प्रवाह । अनेक जन्म जन्मान्तरों से हमारे जीवन का प्रवाह चला आ रहा है और हमने उसे अनुभव पूर्वक उसे कभी न कभी जिया है । स्मृति और संस्कार के रूप में सब कुछ बंद पड़ा है, लेकिन वर्तमान जीवन में हमारे पाने की चाहना और अनेकानेक वासनाएं उन स्मृतिओं के बीच बाधा बनकर खड़ी रहती हैं । हम प्रयत्नपूर्वक अपना पूर्व जन्म स्मरण भी करना चाहें तो भी हमें स्मरण नहीं आती हैं । लेकिन जब योगी के जीवन से आवश्यकता से अधिक संग्रह करने की इच्छा, चाहना या वासना समाप्त हो जाती है तब उसे पूर्व जन्म की जानने योग्य सभी महत्वपूर्ण घटनाएँ स्मरण में आ जाती हैं । केवल पूर्व जन्म ही नहीं अपितु वर्तमान जन्म की बालपन की घटनाएँ उसे पता चल जाती हैं । इस प्रकार भूत और वर्तमान जन्म का ज्ञान हो जाने से वह भविष्य की दिशा भी जान लेता है ।
जो भी संस्कार रूप से हमारी स्मृति में है, उसे पुनः स्मरण करने में केवल हमारी वासनाएं ही बाधा हैं । वासना कुछ पाने की, आवश्यकता से अधिक संचय करने की । जब योगी इस आवश्यकता से अधिक संचय करने की प्रवृत्ति पर नियंत्रण पा लेता है तब उसके जीवन का प्रवाह फिर से बहने लग जाता है और वह जब चाहे अपनी पुरानी स्मृतियों को खंगाल सकता है ।
अतः अपरिग्रह के सिद्ध होने पर योगी अपने भूत, वर्तमान और भविष्य को जान लेता है ।
सूत्र: अपरिग्रहस्थैर्ये जन्मकथंतासंबोधः
बटोरने के स्वभाव को विषाद कहा है
बांटने के स्वभाव को प्रसाद कहा है
विषाद से जीवन बोझ बनेगा
प्रसाद से आंनद रोज घुलेगा
संग्रह बुद्धि को जिसने छोड़ा
विषाद से स्वयं को जिसने मोड़ा
अपरिग्रह के प्रबल अभ्यास से
छूट जाता है देहाध्यास से
मैं कौन हूँ-मेरा कर्म क्या?
पाप क्या? पुण्य धर्म क्या?
पूर्व सब जन्मों को जान है लेता
मैं कौन था यह पहचान है लेता
कैसे जीवन में कर्म किये थे
धर्म किये थे या फिर अधर्म किये थे
यही सोचकर सही राह है चुनता
कैवल्य प्राप्ति की चाह है बुनता