यह भी सर्वविदित है कि सबके जीवन में अलग अलग दुख आते रहते हैं, जब दुख भोग लिया जाता है या आकर चला जाता है तो उसके बाद दुख और जिनके कारण से दुख मिला था उन्हें दूर करने की इच्छा संस्कार रूप में चित्त में अंकित रह जाती है, जिसे द्वेष नामक क्लेश कहते हैं।
द्वेष नामक क्लेश से अनेक दुर्भाव जैसे मानसिक एवं प्रकट क्रोध, हिंसा, ईर्ष्या, उत्पन्न होते हैं। द्वेष नामक क्लेश जब जीवन में अधिक बढ़ जाता है तो निरंतर संशय की स्थिति बना देता है जिसके कारण से व्यक्ति किसी पर भी सहजता से विश्वास नहीं कर पाता है। यदि कोई व्यक्ति निरंतर संशय की स्थिति में जीता है तो वह अपनी आत्मा से दूर होता चला जाता है। एक प्रकार से वह केवल शरीर भाव से ही जी रहा है, जीवन के असली तत्त्व जो वह स्वयं आत्मस्वरूप है उससे बहुत अधिक बिछड़ने लग जाता है। यह स्थिति अत्यंत भयावह है।
द्वेष क्लेश बढ़ने से, लगातार नकारात्मक भाव से भरने लग जाता है। स्वभाव से चिढचिढा और शिकायती होने लग जाता है।
जब कोई व्यक्ति किसी दुख से ग्रसित होता है तो चिंतन करता है कि दुख क्यों आया, किन साधनों के कारण आया तो यह दुख का अनुभव संस्कार रूप में चित्त पर चिपक जाता है। चित्त पर चिपके ये संस्कार कोई भी अनुकूल वातावरण उत्पन्न होने पर स्मृति को उत्पन्न कर देते हैं। फिर इस स्मृति से द्वेष पैदा होता है। यही द्वेष के उत्पन्न होने का क्रम एवं प्रक्रिया है।
राग और द्वेष दो विपरीत क्लेश हैं लेकिन दोनों की उत्पत्ति के क्रम एवं प्रक्रिया में एक जैसी समानता है।
राग अलग तरह से व्यक्ति को दुखी करता है और द्वेष अलग तरह से।
द्वेष, व्यक्ति को पाप और हिंसा में प्रवृत्त करता है। बुरे कर्माशयों की ओर लेकर जाता है और फिर पूरे मानव जीवन को जन्मजन्मांतरों में भटकाता है।
इसलिए दैनिक जीवन में राग और द्वेष को ठीक ठीक समझकर इनका प्रयोग केवल स्वयं के जीवन के उत्थान में लगाना चाहिए।
द्वेष क्लेश होने के साथ साथ एक शक्ति भी है। ऐसी शक्ति जो हमें हटाने की, निवृत्ति की शक्ति देती है। अतः इसका प्रयोग यदि आप स्वयं के जीवन से दोषों और दुर्गुणों को हटाने के लिए करेंगे तो यही शक्ति सात्विक शक्ति बन जाएगी।
ईश्वर ने जो कुछ बनाया है उसमें अच्छाई और बुराई दोनों डालकर भेजी हुई है, अब यह आपका चुनाव है कि आप उस शक्ति का प्रयोग अच्छाई के लिए करते हैं या स्वयं उसकी चपेट में आकर स्वयं को नष्ट करते हैं।
जग की सेवा, खोज अपनी, प्रीति उससे कीजिये
जिंदगी का राज है ये जानकर जी लीजिये।
सूत्र: दुःखानुशयी द्वेषः
सुख भोग में जो बाधाएं हैं
मैं सुख भोगूं ये अपेक्षाएं हैं
राग ग्रसित चित्त तब मचलता है
तभी भीतर द्वेष भी पलता है
राग, सुख भोग की आशाओं का
द्वेष, सुख में पड़ती बाधाओं का
जिन कारणों से दुख है पाया
उन कारणों में द्वेष है समाया
हिंसा, क्रोध और संशय निरंतर
द्वेष के हैं ये भाव अनंतर
अतः राग द्वेष पर दृष्टि गहरी हो
प्रतिक्षण योगी सजग प्रहरी हो