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साधन पाद के सूत्र संख्या एक से लेकर २७ तक महर्षि ने क्लेशों से लेकर कैवल्य पर्यंत एक विशाल पूरी प्रक्रिया समझा दी । किस प्रकार क्लेशों के उदय से जन्म-मरण के बंधन में फंसता हुआ मनुष्य जाति-आयु और भोग के लपेटे में आता है । फिर संसार में दुःख दर्शन करता हुआ उससे छुटने का प्रयत्न कर सकता है । आत्मा और बुद्धि (प्रकृति) के स्वरुप को अलग अलग समझाया । प्रकृति और पुरुष का जो अज्ञान जनित संयोग है उसे हटाने की प्रक्रिया समझाई । और अंत में यह बताया कि जब तक दृढ, न खंडित होने वाली विवक ख्याति की प्राप्ति नहीं हो जाती पूर्ण रूप से दुखों से निवृत्ति नहीं हो सकती है । इस पूरी प्रक्रिया में एक साथ कैवल्य की स्थिति बुद्धि के स्तर पर समझा दी गई।
लेकिन विवेक ख्याति की स्थिति तक पहुँचने के लिया साधना विशेष के बारे में अधिक चर्चा नहीं हुई । केवल प्रारभ में क्रिया योग के माध्यम से क्लेशों को तनु करने एवं समाधि की भावना प्रबल करने का इशारा महर्षि ने किया था ।
इस प्रकार यह सिद्ध है कि ऐसे साधक जो योग मार्ग पर आगे बढ़ना चाहते हैं, उन्हें सर्व प्रथम क्रिया योग का सहारा लेना चाहिए । तप, स्वाध्याय एवं ईश्वर प्रणिधान के निरंतर अभ्यास से उनके क्लेश तनु अवस्था में आ जाएँ और साथ ही समाधि कि भावना प्रतिदिन प्रबल होती चली जाये तो फिर उन्हें अष्टांग योग में पदार्पण करना चाहिए । यदि क्रिया योग का अभ्यास किये बिना ही, क्रिया योग में एक स्थिति विशेष लाये बिना ही अष्टांग योग में प्रगति नहीं हो पायेगी । अष्टांग योग के अभ्यास में कठिनता अनुभव होगी और साधक बीच में ही प्रमादी होकर योग यात्रा को स्थगित कर सकता है ।
इससे आगे वाले सूत्रों में अष्टांग योग के बारे में महर्षि विस्तृत चर्चा करेंगे तब सभी विषयों पर विस्तार से समझने का प्रयास करेंगे ।
योग के अंगो का अनुष्टान करने से निरंतर सब प्रकार की अशुद्धि का नाश होता जाता है और जैसे जैसे जितने अंश में अशुद्धि हटती जाती है, उतने ही अंशों में ज्ञान का प्रकाश भी उदित होता जाता है । अशुद्धि के नाश का एवं ज्ञान के प्रकाश का क्रम विवेक ख्याति होने तक चलता रहता है । एक समय ऐसा आता है जब अशुद्धि पूर्ण रूप से नष्ट हो जाती है और ज्ञान का प्रकाश पूर्ण रूप से प्रकाशित हो जाता है । इस स्थिति तो विवेक ख्याति कहते हैं, जिसकी चर्चा पूर्व सूत्रों में की जा चुकी है ।
दो प्रकार से योग घटित होता है । एक व्यवहार काल से और दूसरा साधना काल से । जब दोनों कालों में सम्यक रूप से योग संपन्न होता जाता है तो पूर्व संचित वृत्तियों का निरोध होता चला जाता है और नए कर्म निष्कामता में परिवर्तित होते चले जाते हैं, अर्थात कर्म फल देने वाले नहीं बनते हैं । इस प्रकार पुराना सब कुछ समाप्त होता चला जाता है और नए संस्कार और वृत्तियाँ नहीं बनती हैं । या अशुद्धि हटती चली जाती है और ज्ञान का प्रकाश होता चला जाता है।
अग्रिम सूत्रों से इस पाद पर्यंत एवं उससे भी आगे तीसरे पाद तक अब अष्टांग योग की विस्तृत चर्चा शुरू होती है।
सूत्र: योगाङ्गाऽनुष्ठानादशुद्धिक्षये ज्ञानदीप्तिराविवेकख्यातेः
सुनो! योग के अंग आठ हैं
समझा जिसने बस उसी के ठाठ हैं
मल ताप त्रय सब धुल जाते हैं
योगी सत्य ज्ञान को पाते हैं
ज्ञान प्रकाशित मन को पाकर
शुद्ध बुद्धि और स्वस्थ तन को पाकर
जीवन में आंनद रस भरते हैं
जो अष्टांग योग का पालन करते हैं
मिट जाती मन की उलझन हैं
तब जीवन में सुलझन ही सुलझन है
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