तप के अनुष्ठान के पूर्ण होने पर योगी को क्या लाभ मिलता है, इस विषय में महर्षि बता रहे हैं ।
तप, क्रिया योग का एक महत्वपूर्ण भाग है । तप से क्लेश क्षीण होते हैं यह हम पूर्व में पढ़ आये हैं , लेकिन अभी जब तप का नियम के रूप में पालना की जाती है और जब तप में योगी प्रतिष्ठित हो जाता है तो उसके शरीर एवं इन्द्रियों की अशुद्धि का क्षय हो जाता है । उसकी इन्द्रियां और शरीर मल रहित होकर विशेष सामर्थ्य से युक्त हो जाती हैं ।
काया की अशुद्धि क्या है और इन्द्रियों की अशुद्धि क्या है ? – पसीना, दुर्गन्ध या मैल ये सब कुछ शरीर की बाहरी अशुद्धि है और मन में कुविचारों, क्रोध, लोभ, आदि दुर्गुणों रूप में भीतरी अशुद्धि है । इस प्रकार काया अर्थात शरीर की दोनों प्रकार से जब शुद्धि हो जाती है ।
इन्द्रियों में चंचलता या जड़ता होना ही उनका अशुद्धि है । जब वे सत्त्वस्थ होने लगती हैं तो इसी को इन्द्रियों की शुद्धि कहा जाता है । यदि इन्द्रियों के ऊपर नियंत्रण नहीं किया जाये तो वे बाहर की ओर ले जानेवाली होती हैं । जैसे जैसे योगी तप के अभ्यास से उन्हें नियन्त्रित करने लगता है तो उनमें सत्त्व गुण बढ़ने लग जाता है । सत्त्व गुण के बढ़ने का नाम ही इन्द्रियों की अशुद्धि का क्षय है ।
इस प्रकार शरीर और इन्द्रियों की अशुद्धि का क्षय तप के निरंतर अनुष्ठान से होता है । जैसे सोने को तपाने से उसके भीतर का मल जलकर नष्ट हो जाता है और सोना निखर जाता है, उसी प्रकार शरीर और इन्द्रियां भी तप की अग्नि से तपकर निखर जाते हैं । तप के स्वरूप की चर्चा पूर्व के सूत्रों में कई बार कर दी गई है ।
सूत्र: कायेन्द्रियसिद्धिरशुद्धिक्षयात् तपसः
बिना तप के योगी भला कौन हुआ?
तप के बल से साधक उपयोगी हुआ है।
स्वस्थ-स्वच्छ और बलवान होता
ठीक से तप का जब अनुष्ठान है होता
इन्द्रियाँ शक्ति सम्पन्न हो जाती
नई-नई शक्ति उत्पन्न हो जाती
सब अशुद्धि के क्षय को पाकर
तन-मन का धन अक्षय पाकर
योग मार्ग सहज सरल हो जाता है
योगी तन-मन से विमल हो जाता है
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