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चित्त के विषय में चल रही चर्चा में यह अंतिम सूत्र है जिसमें महर्षि चित्त के प्रयोजन के बारे में बात कर रहे हैं।
चित्त सतोगुण, रजोगुण और तमोगुण से मिलकर बना है अतः वह जड़ पदार्थ है। और जड़ पदार्थ जो होते हैं वे स्वयं के लिए न होकर पुरुष के लिए कार्य करते हैं। यह कार्य है आत्मा को भोग और मुक्ति दिलाना।
चित्त के सब प्रकार के कर्मों एवं उनके संस्कारों, विविध वासनाओं से रंजित होने के बाद भी यह स्वयं के लिए इनका कोई उपयोग नहीं कर सकता है। चित्त का सारा प्रयोजन आत्मा के लिए है।
इसमें कारण बताते हुए महर्षि कहते हैं कि चित्त का स्वभाव मिलजुल कर काम करने वाला होने के कारण वह आत्मा के लिए ही कार्य करता है।
उदाहरण के लिए: जितने भी संघात होते हैं वे मिलकर जो कुछ बनाते हैं उसका उपयोग मनुष्य करता है। जैसे एक कंप्यूटर में प्रयुक्त होने वाले CPU, Mouse Pad, Monitor आदि ये सब मिलकर कंप्यूटर बनाते हैं, लेकिन ये स्वयं उस कंप्यूटर का प्रयोग नहीं कर सकते हैं। ये सब मिलजुल कर एक संघात के रूप में कंप्यूटर कहलाते हैं और मनुष्य के उपयोग में आते हैं।
इनका प्रयोजन ही है मिलजुल कर एक कंप्यूटर का रूप धरना और फिर मनुष्य के लिए उपयोग में आना।
अतः महर्षि अंतिम में यह स्पष्ट कर रहे हैं कि चित्त में अनेक वासनाएं, कामनाएं चित्रित होते हुए भी वह स्वयं उनका कोई प्रयोग नहीं कर सकता है। चित्त का अस्तित्व पुरुष के भोग और अपवार्ग के लिए ही होता है।
इस प्रकार यहां चित्त के विषय में विस्तृत चर्चा सम्पूर्ण हुई