पूर्व सूत्र में, योगियों से भिन्न जो सामान्य लोग होते हैं उनके कर्मों को तीन प्रकार महर्षि ने बताए थे। वे तीन प्रकार के कर्म थे:
शुक्ल कर्म
कृष्ण कर्म
शुक्ल – कृष्ण कर्म अर्थात पाप पुण्य मिश्रित कर्म
अब जिनके जीवन में ये तीन प्रकार के कर्म होते हैं तो इन कर्मों और इन कर्मों के फलोन्मुख होने के अनुसार वासनाएं प्रकट होती हैं अर्थात इच्छाएं उत्पन्न होती हैं।
फिर जैसे शुभ, अशुभ या शुभ अशुभ मिले कर्म होंगे उसी प्रकार की इच्छाएं भी मनुष्य में पैदा हो जाती हैं।
महर्षि यहां कर्मों एवं उनके फलों के उन्मुख होने के सीधे से गणित की बात कर रहे हैं। आम बोलचाल की भाषा में जिसे कह देते हैं जैसा बोओगे वैसा काटोगे या जैसे बीज बोओगे वैसी ही फसल काटोगे।
अच्छे कर्मों से अच्छी इच्छाएं उत्पन्न होंगी। बुरे कर्मों से बुरी इच्छाएं उत्पन्न होंगी। बाकी मिश्रित कर्म से अच्छी बुरी इच्छाएं उत्पन्न होती रहेंगी। वहीं योगियों के कर्म निष्काम होने के कारण वे कर्म संस्कार से रहित हो जाते हैं तो उनकी किसी भी प्रकार से वासनाएं प्रकट नहीं होंगी।
यहां वासना शास्त्रीय शब्द है। आज के योग में वासना का अर्थ केवल काम वासना से लिया जाता है लेकिन शास्त्रों में वासना शब्द का अर्थ कर्म जनित फल की उन्मुखता से है अर्थात कर्म के बाद जो कर्म का संस्कार बनता है और मनुष्य को बलात खींचने की प्रवृत्ति है उसे वासना शब्द से कहा जाता है।
सूत्र: ततस्तद्विपाकानुगुणानामेवाभिव्यक्तिर्वासनानाम्
शुभ अशुभ और मिश्रित कर्म से
मिलते हैं फल अनुरूप कर्म से
अच्छे कर्मों का अच्छा फल है मिलता
बुरे कर्मों का बुरा फल है मिलता
जैसे कर्मों की गति होती है
वैसी जीवन की गति होती है
हर कर्म का संस्कार है बनता
पककर कर्म फिर संसार है बनता
जैसी कर्म की वासनाएं होंगी
वैसी ही जीवन की आशाएं होंगी
योगी से भिन्न जो व्यक्ति हैं
उनकी कर्मों के अनुरूप आसक्ति हैं