योग मार्ग पर आगे बढ़ने के लिए हमारा शरीर और इंद्रियां बहुत बड़े साधन हैं। दोनों में सुप्त शक्तियां अंतर्निहित होती हैं। यह शरीर और इंद्रियां, मन, बुद्धि हृदय सबकुछ प्रकृति के परिणाम हैं। और वस्तुत प्रकृति जनित प्रत्येक पदार्थ में पूर्णता है लेकिन मानव जीवन एक यात्रा है इसलिए प्रकृति ने आधार रूप में साधनों का निर्माण करके उसके भीतर पूर्णता को अंतर्निहित कर दिया है। अब यह मानव का कर्तव्य है कि वह अपने सुप्त सामर्थ्य को उघाड़े और अपनी पूर्णता को प्राप्त करे।
तो जब योगी, योग साधना मार्ग के अनुष्ठानों एवं सिद्धियों के प्रयोग से प्रकृति की पूर्णता को प्राप्त कर लेता है तो प्रकृति जनित इस शरीर, इंद्रियों , बुद्धि एवं हृदय में पूर्ण सामर्थ्य उत्पन्न हो जाता है। तो पूर्व के शरीर, इंद्रियों,मन, बुद्धि एवं हृदय में जो परिवर्तन होते हैं इसे योग की भाषा में “जात्यंतर” नाम से महर्षि संबोधित कर रहे हैं। यह एक परिभाषा सूत्र है। इसके साथ ही महर्षि बता रहे हैं कि यह जात्यंतर, प्रकृति की पूर्णता होने पर या प्रकृति के ऊपर पूर्ण वशता आने से घटित होता है।
इस सूत्र से यह भी अर्थ निकलता है कि शरीर और इंद्रियां, मन, बुद्धि और हृदय योग साधना मार्ग में विशेष या अपने स्वाभाविक सामर्थ्य से युक्त हो जाती हैं।
इस सामर्थ्य की प्राप्ति के लिए समाधिपाद, साधन पाद एवं विभूति पाद पर्यंत अनेक साधनों, अनुष्ठानों एवं विधियों का प्रयोग महर्षि बता ही चुके हैं।
सूत्र: जात्यन्तरपरिणामः प्रकृत्यापूरात्
योग मार्ग में चलते चलते
पग पग योगी संभलते संभलते
अनेक शक्तियां पा जाता है
नए नए शरीर बनाता है
इंद्रियों में नूतन शक्ति आ जाती
योगी को है बड़ा लुभाती
लेकिन सदा यह ध्यान रहे
नहीं शक्तियों का यह अभिमान रहे
यह सबकुछ प्रकृति के प्रवेश से होता
उसके आपूरण और आवेश से होता
शरीर विशेष सामर्थ्य से युक्त होता है
नवशरीर चित्त बनाने में प्रयुक्त होता है