अब महर्षि अगली बात कर रहे हैं कि मनुष्य के भीतर सदा जीने की इच्छा होने के कारण वासनाओं का प्रवाह आदि काल से है अर्थात वासनाओं से भी सदा से चली आ रही हैं और आगे भी ऐसे ही चलती आयेंगी ।
प्रत्येक व्यक्ति चाहता है कि वह कभी न मरे। वह सदैव रहना चाहता है। उसकी यही चाहना बाकी सब चाहनाओं का मूल स्त्रोत है। क्योंकि उसको पता है जब तक जीवन है तभी तक सब अनुभव हैं, सब भोग हैं। इसलिए सदा बने रहने की चाह ही सब चाहों की जननी है। सब वासनाओं का आधार है।
यदि इस एक वासना का उच्छेद हो जाए अर्थात इसको हम समाप्त कर लें तो धीरे धीरे अन्य कर्म संस्कारों की पकड़ ढीली पड़ जायेगी।
महर्षि एक ओर वासना के अनादि प्रवाह की सत्यता बता रहे हैं और दूसरी ओर एक बड़े उपाय या साधन की ओर स्पष्ट संकेत कर रहे हैं कि निष्काम कर्म करते हुए इस सदा जीवन बने रहने की वासना से धीरे धीरे मुक्त हुआ जाय तो फिर यह साधना मोक्ष मार्ग में अत्यंत सहायक हो जाती है।
मैं कभी मरूं नहीं अपितु सदा जीवित रहूं यह भावना इतनी बलवती क्यों है? क्योंकि प्रत्येक जन्म में जब मृत्यु के क्षण निकट आए तब जीव मृत्यु के भय से भरता रहा। मृत्यु के क्षण में मरूं नहीं यह प्रबल भाव इकट्ठा करता रहा लेकिन बचा नहीं। मृत्यु को संकट मानकर उसके प्रति अभिनिवेष का भाव बढ़ाता गया तो सदा जीने की वासना भी साथ साथ में प्रबल होती गई। जो कि फिर सब वासनाओं का आधार बन गई।
इसलिए यदि मृत्यु के भय से छूटा जाय तो बाकी वासनाओं के प्रभाव से भी आसानी से छूटा जा सकता है।
मनुष्य को यह अच्छे से पता है कि जीवन रहेगा तभी अन्य भोग रहेंगे। इसलिए वह सदा बना रहूं इस वासना को नहीं छोड़ना चाहता है।
सूत्र: तासामनादित्वं चाशिषो नित्यत्वात्
निरोध अवस्था में क्या होता है?
बीज शांति के मन बोता है
सहज सरल चित्त बहता अविरल
बंद हो जाते हैं सब कोलाहल
निरोध अवस्था का परिणाम यही है
शांत मन -चित्त का विश्राम यही है