पूर्वोक्त सूत्र में महर्षि ने वासनाओं ( कर्म करने के बाद बनने वाले उनके संस्कारों) को अनादि काल से चले आ रहे स्वभाव का बताया था। अब प्रस्तुत योग सूत्र में महर्षि उन वासनाओं को हटाने का उपाय या प्रक्रिया बता रहे हैं।
वे कह रहे हैं कि इन वासनाओं के अस्तित्व में आने के चार मुख्य कारण हैं।
हेतु
फल
आश्रय
आलंबन
कोई भी कर्म हम करते हैं इसके करने के पीछे एक कारण होता है, और जब वह कर्म हम करते हैं तो उसका निश्चित एक परिणाम होता है।
यह तो हो गई कर्म का कारण और परिणाम की बात। अब यह कर्म जब क्रियान्वित हो जाता है तो हमारे चित्त या अंतःकरण में जाकर चिपक जाता है अर्थात चित्त के आश्रित हो जाता है। चित्त को आधार बनाकर उसमें संगृहीत हो जाता है। उसके बाद जब जब सभी कर्म संस्कारों को किसी भी प्रकार से कोई परिस्थिति या भाव, दृश्य कुछ भी सहारा के रूप में मिलता है तो ये पूर्व कृत कर्मों के संस्कार पुनः चित्त में से उठकर व्यक्ति से वे कर्म कराने लगते हैं और हर कर्म के साथ ये संस्कार और मजबूत होते चले जाते हैं। इस सहारे को ही महर्षि शास्त्र की भाषा में आलंबन कह रहे हैं।
इस प्रकार कर्म, कर्म के कारण, कर्म का परिणाम एवं कर्म का आलंबन ये चार चीजों का जब पूरी तरह से अभाव हो जाता है तो कर्म के संस्कारों का अर्थात वासनाओं का भी अभाव हो जाता है। फिर योगी जो भी करता है उसके संस्कार नहीं बनते हैं जिससे फिर आगे की श्रृंखला भी निर्मित नहीं होती है। तब योगी कर्म तो करता है लेकिन वे कर्म निष्काम कर्म होने लग जाते हैं।
इस प्रकार कर्म एवं कर्म बंधनों से मुक्ति होकर निष्काम कर्म में प्रतिष्ठा की युक्ति महर्षि यहां प्रतिपादित कर रहे हैं।
सूत्र: हेतुफलाश्रयालम्बनैः संगृहीतत्वादेषामभावे तदभावः
बेलगाम मन इधर उधर है भागता
कसो लगाम तो भीख है मांगता
कभी एक डाल तो कभी दूजी डाल
यही है मन की बेलगाम चाल
कभी अच्छे संस्कारों के परवश होकर
हो जाता एकाग्र सब चंचलता खोकर
समाधि भाव से युक्त हुआ मन
किसी एक विषय का जाता है बन
फिर अनेक विषयों नहीं भटकता
समाधि भाव से एक में अटकता
यही चित्त का समाधि परिणाम है
मन की निर्मलता का एक आयाम है
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